________________ पुनर्वर्गीकरण किया जाना आवश्यक हो गया था। इसके लिये उनका वर्गीकरण 1. उपांग, 2. प्रकीर्णक, 3. छेद 4. चलिका सूत्र और 5. मूल सूत्र, इन पांच विभागों में हा। लेकिन यह वर्गीकरण कब और किसने शुरु किया---यह जानने के निश्चित साधन नहीं हैं। उपांग विभाग में बारह, प्रकीर्णक विभाग में दस, छेद विभाग में छह, चलिका विभाग में दो और मूल सूत्र विभाग में चार शास्त्र हैं। इनमें से दस प्रकीर्णकों को और छेद सुत्रों में से महानिशीथ और जीतकल्प को तथा मूलसूत्रों में से पिंडनियुक्ति को स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में पागम रूप में मान्य नहीं किया गया है। आगमिक विच्छेद आगमों की संख्या में वृद्धि हुई और वर्गीकरण भी किया गया लेकिन साथ ही यह भी विडंबना जुड़ी रही कि जैन श्रुत का मूल प्रवाह मूल रूप में सुरक्षित नहीं रह सका। आज उसका सम्पूर्ण नहीं तो अधिकांश भाग नष्ट विस्मृत और विलुप्त हो गया है। अंग आगमों का जो परिमाण प्रागमों में निर्दिष्ट है, उसे देखते हुए, अंगों का जो भाग अाज उपलब्ध है उसका मेल नहीं बैठता। यह तो पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि प्रत्येक परम्परा अपने धर्मशास्त्रों को कंठस्थ रखकर शिष्यप्रशिष्यों को उसी रूप में सौंपती थी। जैन श्रमणों का भी यही आचार था, काल के प्रभाव से श्रुतधरों का एक के बाद एक काल कवलित होते जाना जैन श्रमण के प्राचार के कठोर नियम, जैन श्रमण संघ के संख्याबल की कमी और बार-बार देश में पड़ने वाले दुर्भिक्षों के कारण कंठाग्र करने की धारा टूटती रही। इस स्थिति में जब प्राचार्यों ने देखा कि श्रत का ह्रास हो रहा है, उसमें अव्यवस्था पा रही है, तब उन्होने एकत्र होकर जैन श्रुत को व्यवस्थित किया। भगवान् महावीर के निर्वाण के करीब 160 वर्ष बाद पाटलिपुत्र में जैन श्रमणसंघ एकत्रित हुआ / उन दिनों मध्यप्रदेश में भीषण दुर्भिक्ष के कारण जैन श्रमण तितर-बितर हो गये थे। अतएब एकत्रित हए उन श्रमणों ने एक दूसरे से पूछकर ग्यारह अंगों को व्यवस्थित किया किन्तु उनमें से किसी को भी संपूर्ण दृष्टिवाद का स्मरण नहीं था। यद्यपि उस समय दृष्टिवाद के ज्ञाता प्राचार्य भद्रबाह थे, लेकिन उन्होंने बारह वर्षीय विशेष प्रकार की योगसाधना प्रारम्भ कर रक्खी थी और वे नेपाल में थे। अतएव संघ ने दृष्टिवाद की वाचना के लिये अनेक साधुओं के साथ स्थूलभद्र को उनके पास भेजा। उनमें से दृष्टिवाद को ग्रहण करने में स्थूलभद्र ही समर्थ हुए / किन्तु दस पूर्वी तक सीखने के बाद उन्होंने अपनी श्रुतलब्धि-ऋद्धि का प्रयोग किया और जब यह बात आर्य भद्रबाहु को ज्ञात हुई तो उन्होंने वाचना देना बंद कर दिया, इसके बाद बहुत अनुनय-विनय करने पर उन्होंने शेष चार पूर्वो की सूत्रवाचना दी, किन्तु अर्थवाचना नहीं दी। परिणाम यह हुआ कि सूत्र और अर्थ से चौदह पूर्वो का ज्ञान प्रार्य भद्रबाहु तक और दस पूर्व तक का ज्ञान आर्य स्थूलभद्र तक रहा। इस प्रकार भद्रबाहु की मृत्यु के साथ ही अर्थात् वीर सं. 170 वर्ष बाद श्रुतकेवली नहीं रहे। फिर दस पूर्व की परम्परा भी आचार्य वज्र तक चली। प्राचार्य वज्र की मृत्यु विक्रम सं० 114 में अर्थात वीरनिर्वाण से 584 बाद हई। बज्र के बाद प्रार्य रक्षित हुए। उन्होंने शिष्यों को भविष्य में मति मेधा धारणा आदि से हीन जानकर, आगमों का अनुयोगों में विभाग किया। अभी तक तो किसी भी सूत्र की व्याख्या चारों प्रकार के अनुयोगों से होती थी किन्तु उन्होंने उसके स्थान पर विभाग कर दिया कि अमुक सूत्र की व्याख्या केवल एक ही अनुयोगपरक की जाएगी। [17] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org