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________________ परिग्रह के गुणनिष्पन्न नाम ] [145 26. प्रमुक्ति---मुक्ति अर्थात् निर्लोभता / उसका न होना अर्थात् लोभ की वृत्ति होना / यह मानसिक भाव परिग्रह है। 27. तृष्णा--अप्राप्त पदार्थों की लालसा और प्राप्त वस्तुओं की वृद्धि की अभिलाषा तृष्णा है। तृष्णा परिग्रह का मूल है। 28. अनर्थक-परिग्रह का एक नाम 'अनर्थ' पूर्व में कहा जा चुका है। वहाँ अनर्थ का आशय उपद्रव, झंझट या दुष्परिणाम से था। यहाँ अनर्थक का अर्थ 'निरर्थक' है / पारमार्थिक हित और सुख के लिए परिग्रह निरर्थक-निरुपयोगी है। इतना ही नहीं, वह वास्तविक हित और सुख में बाधक भी है। 26. आसक्ति-ममता, मूर्छा, गृद्धि / 30. असन्तोष-असन्तोष भी परिग्रह का एक रूप है। मन में बाह्य पदार्थों के प्रति सन्तुष्टि न होना। भले ही पदार्थ न हों परन्तु अन्तरस् में यदि असन्तोष है तो वह भी परिग्रह है। विवेचन--'मुच्छा परिग्गहो वृत्तो' इस आगमोक्ति के अनुसार यद्यपि मूर्छा–ममता परिग्रह है, तथापि जिनागम में सभी कथन सापेक्ष होते हैं। अतएव परिग्रह के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला यह कथन भाव की अपेक्षा से समझना चाहिए। ममत्वभाव परिग्रह है और ममत्वपूर्वक ग्रहण किए जाने वाले धन्य-धान्य, महल-मकान, कुटुम्ब-परिवार, यहाँ तक कि शरीर भी परिग्रह हैं / ये द्रव्यपरिग्रह हैं। __ इस प्रकार परिग्रह मूलतः दो प्रकार का है—आभ्यन्तर और बाह्य / इन्हीं को भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह कहते हैं / प्रस्तुत सूत्र में परिग्रह के जो तीस नाम गिनाए गए हैं, उन पर गम्भीरता के साथ विचार करने पर यह प्राशय स्पष्ट हो जाता है। इन नामों में दोनों प्रकार के परिग्रहों का समावेश किया गया है। प्रारम्भ में प्रथम नाम सामान्य परिग्रह का वाचक है। उसके पश्चात् संचय, चय, उपचय, निधान, संभार, संकर आदि कतिपय नाम प्रधानतः द्रव्य अथवा बाह्य परिग्रह को सूचित करते हैं / महिच्छा, प्रतिबन्ध, लोभात्मा, अगप्ति. तृष्णा, आसक्ति. असन्तोष अादि कतिपय नाम प्राभ्यन्तरभावपरिग्रह के वाचक हैं। इस प्रकार सूत्रकार ने द्रव्यपरिग्रह और भावपरिग्रह का नामोल्लेख किए विना ही दोनों प्रकार के परिग्रहों का इन तीस नामों में समावेश कर दिया है। ___ अध्ययन के प्रारम्भ में परिग्रह को वृक्ष की उपमा दी गई है। वृक्ष के छोटे-बड़े अनेक अंगोपांग-अवयव होते हैं। इसी प्रकार परिग्रह के भी अनेक अंगोपांग हैं। अनेकानेक रूप हैं। उन्हें समझाने की दृष्टि से यहाँ तीस नामों का उल्लेख किया गया है / यहाँ यह तथ्य स्मरण रखने योग्य है कि भावपरिग्रह अर्थात् ममत्वबुद्धि एकान्त परिग्रहरूप है। द्रव्यपरिग्रह अर्थात् बाह्य पदार्थ तभी परिग्रह बनते हैं, जब उन्हें ममत्वपूर्वक ग्रहण किया जाता है। तीस नामों में एक नाम 'अणत्थयो' अर्थात् अनर्थक भी है। इस नाम से सूचित होता है कि जीवननिर्वाह के लिए जो वस्तु अनिवार्य नहीं है, उसको ग्रहण करना भी परिग्रह ही है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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