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________________ परिग्रह के गुणनिष्पन्न नाम ] [143 वृद्धि से सन्तुष्टि प्राप्त होना भी असंभव है / लोभ को शान्त करने का एक मात्र उपाय है शौचनिर्लोभता-मक्ति धर्म का आचरण / जो महामानव अपने मानस में सन्तोषवत्ति को र लेते हैं, तृष्णा-लोभ-लालसा से विरत हो जाते हैं. वे ही परिग्रह के पिशाच से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं / परिग्रह के गुणनिष्पन्न नाम ९४-तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं, तं जहा-१ परिग्गहो 2 संचयो 3 चयो 4 उवचयो 5 णिहाणं 6 संभारो 7 संकरो 8 आयरो 9 पिंडो 10 दव्वसारो 11 तहा महिच्छा 12 पडिबंधो 13 लोहप्पा 14 महद्दी 15 उवकरणं 16 संरक्खणा य 17 भारो 18 संपाउप्पायओ 19 कलिकरंडो 20 पवित्थरो 21 अणत्थो 22 संथवो 23 'अगुत्ति 24 आयासो 25 अविओगो 26 अमुत्ती 27 तण्हा 28 अणत्थओ 29 आसत्ती 30 असंतोसो त्ति वि य, तस्स एयाणि एवमाईणि गामधिज्जाणि होति तीसं / १४-उस परिग्रह नामक अधर्म के गुणनिष्पन्न अर्थात् उसके गुण-स्वरूप को प्रकट करने वाले तीस नाम हैं। ये नाम इस प्रकार हैं 1. परिग्रह-शरीर, धन, धान्य आदि बाह्य पदार्थों को ममत्वभाव से ग्रहण करना। 2. संचय-किसी भी वस्तु को अधिक मात्रा में ग्रहण करना। 3. चय--वस्तुओं को जुटाना-एकत्र करना / 4. उपचय-प्राप्त पदार्थों की वृद्धि करना-बढ़ाते जाना। 5. निधान–धन को भूमि में गाड़ कर रखना, तिजोरी में रखना या बैंक में जमा करवा कर रखना, दबा कर रख लेना। 6. सम्भार-धान्य आदि वस्तुओं को अधिक मात्रा में भर कर रखना / वस्त्र आदि को पेटियों में भर कर रखना / 7. संकर--संकर का सामान्य अर्थ है-भेल-सेल करना / यहाँ इसका विशेष अभिप्राय है---- मूल्यवान् पदार्थों में अल्पमूल्य वस्तु मिला कर रखना, जिससे कोई बहुमूल्य वस्तु को जल्दी जान न सके और ग्रहण न कर ले / 8. प्रादर---पर-पदार्थों में आदरबुद्धि रखना, शरीर, धन प्रादि को अत्यन्त प्रीतिभाव से संभालना-संवारना आदि / ___6. पिण्ड-किसी पदार्थ का या विभिन्न पदार्थों का ढेर करना, उन्हें लालच से प्रेरित होकर एकत्रित करना। 10. द्रव्यसार-द्रव्य अर्थात् धन को ही सारभूत समझना / धन को प्राणों से भी अधिक मानकर प्राणों को जीवन को संकट में डाल कर भी धन के लिए यत्नशील रहना। 1. श्री ज्ञानविमलीय प्रति में 23 वा नाम 'अकित्ति' है और 'अगुत्ति' तथा प्रायासों को एक ही गिना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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