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________________ 128] [ प्रश्नव्याकरणसूत्र : अ. 1, अ. 4 डहसूमालमउयरोमराई शसविहगसुजायपीणकुच्छो झसोयरा पम्हविगडणाभी संणयपासा संगयपासा सुंदरपासा सुजायपासा मियमाइयपीणरइयपासा अकरंडुयकणगस्यगणिम्मलसुजायणिरुवहयदेहधारी कणगसिलातलपसत्थसमतलउवइयवित्थिण्णपिहुलवच्छा जुयसण्णिभपीणरइयपीवरपउट्ठसंठियसुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसुणिचियधणथिरसुबद्धसंधी पुरवरफलिहवट्टियभुया। भुयईसरविउलभोगआयाणफलिउच्छूढदीहबाहू रत्ततलोवतियमउयमंसलसुजाय-लक्षणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी पीवरसुजायकोमलवरंगुली तंबतलिणसुइरुइलगिद्धणखा णिद्धपाणिलेहा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा दिसासोवस्थियपाणिलेहा रविससिसंखवरचक्कदिसासोवत्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहा वरमहिसवराहसोहसदूलरिसहणागवरपडिपुण्णविउलखंधा चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवा अबट्ठियसुविभत्तचित्तमंसू उबचियमंसलपसत्थसदूलविउलहणुया ओयवियसिलप्पवालबिबफलसण्णिभाधरोट्ठा पंडुरससिसकलविमलसंखगोखीरफेणकुददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी अखंडदंता अप्फुडियदंता अविरलदंता सुणिचदंता सुजायदंता एगदंतसे दिव्य अणेगवंता हुयवहणिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततला तालुजीहा गरुलायतउज्जुतुगणासा अवदालियपोंडरीयणयणा कोकासियधवलपत्तलच्छा आणाभियचावरुइलकिण्हन्भराजि-संठियसंगयायसुजायभुमगा अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुसवणा पोणमंसलकवोलदेसभासा अचिरुग्णयबालचंदसंठियमहाणिलाडा उडुवइरिवपडिपुण्णसोमवयणा छत्तागारुत्तमंगदेसा घणणिचियसुबद्धलक्खणुग्णयकूडागारणिपिडियग्गसिरा हुयवहणिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्तकेसंतकेसभूमी सामलीपोंडघणणिचियछोडियमिउविसतपसस्थसुहुमलक्खणसुगंधिसुदरभुयमोयभिंगणीलकज्जलपहट्ठभमरगणणिद्धणिगुरु बणिचियकुचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया सुजायसुविभत्तसंगयंगा। ८८-इसी प्रकार देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रों के वनों में और गुफाओं में पैदल विचरण करने वाले अर्थात् रथ, शकट आदि यानों और हाथी, घोड़ा आदि वाहनों का उपयोग न करके सदा पैदल चलने वाले नर-गण हैं अर्थात् यौगलिक-युगल मनुष्य होते हैं। वे उत्तम भोगों-भोगसाधनों से सम्पन्न होते हैं / प्रशस्त लक्षणों-स्वस्तिक आदि के धारक होते हैं। भोग-लक्ष्मी से युक्त होते हैं। वे प्रशस्त मंगलमय सौम्य एवं रूपसम्पन्न होने के कारण दर्शनीय होते हैं। उत्तमता से बने सभी अवयवों के कारण सर्वांग सुन्दर शरीर के धारक होते हैं। उनकी हथेलियाँ और पैरों के तलभागतलुवे लाल कमल के पत्तों की भांति लालिमायुक्त और कोमल होते हैं। उनके पैर कछुए के समान सुप्रतिष्ठित सुन्दराकृति वाले होते हैं। उनकी अंगुलियाँ अनुक्रम से बड़ी-छोटी, सघन-छद्र-राहत होती है। उनके नख उन्नत-उभरे हुए, पतले, रक्तवर्ण और चिकनेचमकदार होते हैं। उनके पैरों के मुल्फ-टखने सुस्थित, सुघड़ और मांसल होने के कारण दिखाई नहीं देते हैं। उनकी जंघाएँ हिरणी की जंघा, कुरुविन्द नामक तृण और वृत्त सूत कातने की तकली के समान क्रमशः वर्तुल एवं स्थूल होती हैं / उनके घुटने डिब्बे एवं उसके ढक्कन की संधि के समान गढ होते हैं, (वे स्वभावतः मांसल-पुष्ट होने से दिखाई नहीं देते / ) उनकी गति-चाल मदोन्मत्त उत्तम हस्ती के समान विक्रम और विकास से युक्त होती है, अर्थात वे मदोन्मत्त हाथी के समान मस्त एवं धीर गति से चलते हैं। उनका गुह्यदेश-गुप्तांग-जननेन्द्रिय उत्तम जाति के धोड़े के गुप्तांग के समान सुनिमित एवं गुप्त होता है / जैसे उत्तम जाति के अश्व का गुदाभाग मल से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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