________________ 124] [प्रश्नध्याकरणसूत्र शु. 1. अ. 4 स्वामी होते हैं / ) वे अर्धभरत क्षेत्र के अधिपति होते हैं, क्योंकि भरतक्षेत्र का दक्षिण दिशा की ओर का आधा भाग वैताढय नामक पर्वत के कारण विभक्त हो जाता है और वह तीन तरफ लवणसमुद्र से घिरा है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण षट्खण्ड भरत क्षेत्र को दो भागों में विभक्त करने वाला वैताढय पर्वत पूर्व-पश्चिम दिशा में लम्बा आ जाने से तीन खण्ड दक्षिण दिशा में रहते हैं। उन तीनों खण्डों के शासक वासुदेव-अर्धचक्रवर्ती होते हैं / वह अर्धभरत (बलदेव-वासुदेव के समय में) छहों प्रकार के कालों अर्थात् ऋतुओं में होने वाले अत्यन्त सुख से युक्त होता है। बलदेव और वासुदेव धैर्यवान् और कीत्तिमान् होते हैं-उनका धीरज अक्षय होता है और दूर-दूर तक यश फैला होता है। वे अोघबली होते हैं-उनका बल प्रवाह रूप से निरन्तर कायम रहता है / अतिबल-साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अत्यधिक बल वाले होते हैं / उन्हें कोई आहत--पीडित नहीं कर सकता / वे कभी शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं होते अपितु सहस्रों शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाले भी होते हैं। वे दयालु, मत्सरता से रहित-गुणग्राही, चपलता से रहित, विना कारण कोप न करने वाले, परिमित और मंजु भाषण करने वाले, मुस्कान के साथ गंभीर और मधुर वाणी का प्रयोग वाले, अभ्युपगत–समक्ष आए व्यक्ति के प्रति वत्सलता (प्रीति) रखने वाले तथा शरणागत की रक्षा करने वाले होते हैं / उनका समस्त शरीर लक्षणों से सामुद्रिक शास्त्र में प्रतिपादित उत्तम चिह्नों से, व्यंजनों, से-तिल मसा आदि से तथा गुणों से या लक्षणों और व्यंजनों के गुणों से सम्पन्न होता है। मान और उन्मान से प्रमाणोपेत तथा इन्द्रियों एवं अवयवों से प्रतिपूर्ण होने के कारण उनके शरीर के सभी अंगोपांग सुडौल-सुन्दर होते हैं। उनकी आकृति चन्द्रमा के समान सौम्य होती है और वे देखने में अत्यन्त प्रिय एवं मनोहर होते हैं / वे अपराध को सहन नहीं करते अथवा अपने कर्तव्यपालन में प्रमाद नहीं करते / प्रचण्ड–उग्र दंड का विधान करने वाले अथवा प्रचण्ड सेना के विस्तार वाले एवं देखने में गंभीर मुद्रा वाले होते हैं / बलदेव की ऊँची ध्वजा ताड़ वृक्ष के चिह्न से और वासुदेव की ध्वजा गरुड़ के चिह्न से अंकित होती है। गर्जते हुए अभिमानियों में भी अभिमानी मौष्टिक और चाणूर नामक पहलवानों के दर्प को (उन्होंने) चूर-चूर कर दिया था। रिष्ट नामक सांड का घात करने वाले, केसरी सिंह के मुख को फाड़ने वाले, अभिमानी (कालीय) नाग के अभिमान का मथन करने वाले, (विक्रिया से बने हुए वक्ष के रूप में ) यमल अर्जुन को नष्ट करने वाले, महाशकुनि और पूतना नामक विद्याधरियों के शत्रु, कंस के मुकुट को मोड़ देने वाले अर्थात् कंस को पकड़, कर और नीचे पटक कर उसके मुकट को भंग कर देने वाले और जरासंध (जैसे प्रतापशाली राजा) का मान-मर्दन करने वाले थे। वे सघन, एक-सरीखी एवं ऊँची शालाकारों-ताड़ियों से निर्मित तथा चन्द्रमण्डल के समान प्रभा--कान्ति वाले, सूर्य की किरणों के समान, (चारों ओर फैली हुई) किरणों रूपी कवच को बिखेरने, अनेक प्रतिदंडों से युक्त छत्रों को धारण करने से अतीव शोभायमान थे। उनके दोनों पार्श्वभागों (बगलों) में ढोले जाते हुए चामरों से सुखद एवं शीतल पवन किया जाता है। उन चामरों की विशेषता इस प्रकार है-श्रेष्ठ पर्वतों की गुफाओं—पार्वत्य प्रदेशों में विचरण करने वाली चमरी गायों से प्राप्त किये जाने वाले, नीरोग चमरी गायों के पृष्ठभाग-पूछ में उत्पन्न हुए, अम्लान-ताजा श्वेत कमल, उज्ज्वल-स्वच्छ रजतगिरि के शिखर एवं निर्मल चन्द्रमा की किरणों के सदृश वर्ण वाले तथा चांदी के समान निर्मल होते हैं / पवन से प्रताडित, चपलता से चलने वाले, लीलापूर्वक नाचते हुए एवं लहरों के प्रसार तथा सुन्दर क्षीर-सागर के सलिलप्रवाह के समान चंचल होते हैं। साथ ही वे मानसरोवर के विस्तार में परिचित आवास वाली, श्वेत वर्ण वाली, स्वर्णगिरि पर स्थित तथा ऊपर-नीचे गमन करने में अन्य चंचल वस्तुओं को मात कर देने वाले वेग से युक्त हंसनियों के समान होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org