________________ 120 ] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : भु. 1, अ. 4 कदापि तृप्ति होना सम्भव नहीं है। कामभोगों की लालसा अग्नि के समान है / ज्यों-ज्यों ईंधन डाला जाता है, त्यों-त्यों अग्नि अधिकाधिक प्रज्वलित ही होती जाती है / ईंधन से उसकी उपशान्ति होना असम्भव है / अतएव ईंधन डाल कर अग्नि को शान्त करने-बुझाने का प्रयास करना वज्रमूर्खता है / काम-भोगों के सम्बन्ध में भी यही तथ्य लागू होता है। भोजन करके भूख शान्त की जा सकती है, जलपान करके तृषा को उपशान्त किया जा सकता है, किन्तु कामभोगों के सेवन से काम-वासना तृप्त नहीं की जा सकती। जो काम-वासना की वद्धि करने वाला है, उससे उसकी शान्ति होना असम्भव है। ज्यों-ज्यों कामभोगों का सेवन किया जाता है, त्यों-त्यों उसकी अभिवृद्धि ही होती है। यथार्थ ही कहा गया है न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति / हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्द्धते / / जैसे आग में घी डालने से आग अधिक प्रज्वलित होती है—शान्त नहीं होती, उसी प्रकार कामभोग से कामवासना कदापि शान्त नहीं हो सकती। अग्नि को बुझाने का उपाय उसमें नये सिरे से ईंधन न डालना है। इसी प्रकार कामवासना का उन्मूलन करने के लिए कामभोग से विरत होना है / महान् विवेकशाली जन कामवासना के चंगुल से बचने के लिए इसी उपाय का अवलम्बन करते हैं / उन्होंने भूतकाल में यही उपाय किया है और भविष्य में भी करेंगे, क्योंकि इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय है ही नहीं। ___ कामभोग भोगतृष्णा की अभिवृद्धि के साधन हैं और उनके भोगने से तृप्ति होना सम्भव नहीं है, इसी तथ्य को अत्यन्त सुन्दर रूप से समझाने के लिए शास्त्रकार ने चक्रवर्ती के विपुल वैभव का विशद वर्णन किया है। चक्रवर्ती के भोगों की महिमा का बखान करना शास्त्रकार का उद्देश्य नहीं है। उसकी शारीरिक सम्पत्ति का वर्णन करना भी उनका अभीष्ट नहीं है। उनका लक्ष्य यह है मानव जाति में सर्वोत्तम वैभवशाली, सर्वश्रेष्ठ शारीरिक बल का स्वामी, अतुल पराक्रम का धनी एवं अनुपम कामभोगों का दीर्घ काल तक उपभोक्ता चक्रवर्ती होता है। उसके भोगोपभोगों की तुलना में शेष मानवों के उत्तमोत्तम कामभोग धूल हैं, निकृष्ट हैं, किसी गणना में नहीं है / षट्खण्ड भारतवर्ष की सर्व श्रेष्ठ चौसठ हजार स्त्रियाँ उसकी पत्नियाँ होती हैं / वह उन पत्नियों के नयनों के लिए अभिराम होता है, अर्थात् समस्त पत्नियाँ उसे हृदय से प्रेम करती हैं। उनके साथ अनेक शताब्दियों तक निश्चिन्त होकर भोग भोगने पर भी उसकी वासना तृप्त नहीं होती और अन्तिम क्षण तक--मरण सन्निकट आने तक भी वह अतृप्त-असन्तुष्ट ही रहता है और अतृप्ति के साथ ही अपनी जीवन-लीला समाप्त करता है। जब चक्रवर्ती के जैसे विपुलतम भोगों से भी संसारी जीव की तृप्ति न हुई तो सामान्य जनों के भोगोपभोगों से किस प्रकार तृप्ति हो सकती है ! इसी तथ्य को प्रकाशित करना प्रस्तुत सूत्र का एक मात्र लक्ष्य है / इसी प्रयोजन को पुष्ट करने के लिए चक्रवर्ती की विभूति का वर्णन किया गया है। चक्रवर्ती सम्पूर्ण भरतखण्ड के एकच्छत्र साम्राज्य का स्वामी होता है / बत्तीस हजार मुकुट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org