________________ चश्वतों के विसिष्ट भोग] [117 कल्पातीत होते हैं, अर्थात् उनमें इन्द्र, सामानिक प्रादि का स्वामी-सेवकभाव नहीं होता। अब्रह्म का सेवन कल्पोपपन्न वैमानिक देवों तक सीमित है, कल्पातीत वैमानिक देव अप्रवीचार-मैथुनसेवन से रहित होते हैं / यही तथ्य प्रदर्शित करने के लिए मूलपाठ में 'मोह-मोहियमई' विशेषण का प्रयोग किया गया है / यद्यपि कल्पातीत देवों में भी मोह की विद्यमानता है तथापि उसकी मन्दता के कारण वे मैथुनप्रवृत्ति से विरत होते हैं। वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक में निवास करते हैं। ज्योतिष्क देवों का निवास इस पृथ्वी के समतल भाग से 760 योजन से 600 योजन तक के अन्तराल में है। ये सूर्य, चन्द्र आदि के भेद से मूलतः पांच प्रकार के हैं। भवनवासी देवों के असुरकुमार, नागकुमार आदि दस प्रकार हैं। इस रत्नप्रभा पृथ्वी का पिण्ड एक लाख अस्सी हजार योजन है। इसमें से एक हजार योजन ऊपरी और एक हजार योजन नीचे के भाग को छोड़ कर एक लाख अठहत्तर योजन में भवनवासी देवों का निवास है। व्यन्तर देव विविध प्रदेशों में रहते हैं. इस कारण इन की संज्ञा व्यन्तर है। रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम भाग एक हजार योजन में से एक-एक सौ योजन ऊपर और नीचे छोड़ कर बीच के 800 योजन में, तिर्यग्भाग में व्यन्तरों के असंख्यात नगर हैं। __उल्लिखित विवरण से स्पष्ट है कि देव, मनुष्य और तिर्यंच इस प्रब्रह्म नामक आस्रवद्वार के चंगुल में फँसे हैं। चक्रवर्ती के विशिष्ट भोग ८३–भुज्जो य असुर-सुर-तिरिय-मणुयभोगरइविहरसंपउत्ता य चक्कवट्टी सुरणरवइसककया सुरवरुष्व देवलोए। चक्रवर्ती का राज्य विस्तार ८४–भरह-णग-णगर-णिगम-जणवय-पुरवर-दोणमुह-खेड-कब्बड-मडंब-संवाह- पट्टणसहस्समंडियं थिमियमेयणियं एगच्छत्तं ससागरं भुजिऊण वसुहं / चक्रवर्ती नरेन्द्र के विशेषण ८५–गरसीहा गरवई परिंदा णरवसहा मस्यवसहकप्पा अब्भहियं रायतेयलच्छोए दिप्पमाणा सोमा रायवंसतिलगा। चक्रवर्ती के शुभ लक्षण रवि-ससि-संख-वरचक्क-सोत्थिय-पडाग-जव-मच्छ-कुम्म-रहवर-भग-भवण-विमाण-तुरय-तोरणगोपुर-मणिरयण-गंदियावत्त-मुसल-णंगल-सुरइयवरकप्परुषख-मिगवइ-भद्दासण - सुरुचिथूभ - बरमउडसरिय-कुंडल-कुंजर-वरवसह-दीव-मंदर-गरुलज्मय-इंदके उ-दप्पण-अट्ठावय - चाय - बाण-णक्खत्त-मेह - मेहल-वीणा-जुग-छत्त-दाम-दामिणि-कमंडलु कमल-घंटा-वरपोय-सूइ-सागर-कुमुदागर-मगर-हार-गागर उर-णग-णगर-वहर-किण्णर-मयूर-वररायहंस-सारस-चकोर-चक्कवाग-मिहुण-चामर-खेडग-पच्चीसगविपंचि-वरतालियंट-सिरियाभिसेय-मेइणि-खग्गं-कुस-विमल-कलस-भिगार-बद्धमाणग - पसत्थउत्तमवि. भत्तवरपुरिसलवखणधरा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org