________________ संसार-सागर ] [107 कारण ऊपर उछल कर नीचे गिर रहे हैं / इस संसार-सागर में इधर-उधर दौडधाम करते हुए, व्यसनों से ग्रस्त प्राणियों के रुदनरूपी प्रचण्ड पवन से परस्पर टकराती हुई अमनोज लहरों से व्याकुल तथा तरंगों से फटता हआ एवं चंचल कल्लोलों से व्याप्त जल है। वह प्रमाद रूपी अत्यन्त प्र दुष्ट श्वापदों-हिंसक जन्तुओं द्वारा सताये गये एवं इधर-उधर घूमते हुए प्राणियों के समूह का विध्वंस करने वाले घोर अनर्थों से परिपूर्ण है / उस में अज्ञान रूपी भयंकर मच्छ घूमते रहते हैं। अनुपशान्त इन्द्रियों वाले जीव रूप महामगरों की नयी-नयी उत्पन्न होने वाली चेष्टाओं से वह अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है / उसमें सन्तापों का समूह-नाना प्रकार के सन्ताप विद्यमान हैं, ऐसा प्राणियों के द्वारा पूर्वसंचित एवं पापकर्मों के उदय से प्राप्त होने वाला तथा भोगा जाने वाला फल रूपी घूमता हुआ—चक्कर खाता हुआ जल-समूह है जो बिजली के समान अत्यन्त चंचल-चलायमान बना रहता है / वह त्राण एवं शरण से रहित है-दुःखी होते हुए प्रणियों को जैसे समुद्र में कोई त्राणशरण नहीं होता, इसी प्रकार संसार में अपने पापकर्मों का फल भोगने से कोई बचा नहीं सकता। संसार-सागर में ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातागौरव रूपी अपहार-जलचर जन्तुविशेषद्वारा पकड़े हुए एवं कर्मबन्ध से जकड़े हुए प्राणी जब नरकरूप पाताल-तल के सम्मुख पहुँचते हैं तो सन्न-खेदखिन्न और विषण्ण-विषादयुक्त होते हैं, ऐसे प्राणियों की बहुलता वाला है। वह अरति, रति, भय, दीनता, शोक तथा मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से व्याप्त है। अनादि सन्तान-परम्परा वाले कर्मबन्धन एवं राग-द्वेष आदि क्लेश रूप कीचड़ के कारण उस संसार-सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है / जैसे समुद्र में ज्वार आते हैं, उसी प्रकार संसार-समुद्र में देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति और नरकगति में गमनागमन रूप कुटिल परिवर्तनों से युक्त विस्तीर्ण वेला-ज्वार-पाते रहते हैं / हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप प्रारंभ के करने, कराने और अनुमोदने से सचित ज्ञानावरण आदि पाठ कर्मों के गुरुतर भार से दबे हुए तथा व्यसन रूपी जलप्रवाह द्वारा दूर फेंके गये प्राणियों के लिए इस संसार-सागर का तल पाना अत्यन्त कठिन है। इसमें प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव करते रहते हैं / संसार संबंधी सुख-दुःख से उत्पन्न होने वाले परिताप के कारण वे कभी ऊपर उठने और कभी डूबने का प्रयत्न करते रहते हैं, अर्थात् आन्तरिक सन्ताप से प्रेरित होकर प्राणी ऊपर-नीचे आने-जाने की चेष्टाओं में संलग्न रहते हैं / यह संसार-सागर चार दिशा रूप चार गतियों के कारण विशाल है / अर्थात् समुद्र चारों दिशाओं में विस्तृत होता है और संसार चार गतियों के कारण विशाल है / यह अन्तहीन और विस्तृत है / जो जीव संयम में स्थित नहीं- असंयमी हैं, उनके लिए यहाँ कोई आलम्बन नहीं है, कोई आधार नहीं है-सुरक्षा के लिए कोई साधन नहीं है / यह अप्रमेय है-छद्मस्थ जीवों के ज्ञान से अगोचर है या इसकी कहीं अन्तिम सीमा नहीं है-उसे मापा नहीं जा सकता। चौरासी लाख जीवयोनियों से व्याप्त-भरपूर है / यहाँ अज्ञानान्धकार छाया रहता है और यह अनन्तकाल तक स्थायी है। संसार-सागर उदवेगप्राप्तघबराये दा द:खी प्राणियों का निवास स्थान है ! इस संसार में पापकर्मकारी प्राणी जहाँ-जिस ग्राम, कुल आदि की आय बांधते हैं वहीं पर वे बन्धु-बान्धवों, स्वजनों और मित्रजनों से परिजित होते हैं, अर्थात् उनका कोई सहायक, आत्मीय या प्रेमी नहीं होता / वे सभी के लिए अनिष्ट होते हैं / उनके वचनों को कोई ग्राह्य-आदेय नहीं मानता और वे दुविनीत-- कदाचारी होते हैं। उन्हें रहने को खराब स्थान, बैठने को खराब आसन, सोने को खराब शय्या और खाने को खराब भोजन मिलता है। वे अशुचि-अपवित्र या गंदे रहते हैं अथवा प्रश्रुति-शास्त्रज्ञान से विहीन होते हैं। उनका संहनन (हाड़ों की बनावट) खराब होता है, शरीर प्रमाणोपेत नहीं होता-शरीर का कोई भाग उचित से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org