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________________ 104] [प्रश्नव्याकरणसून : थु. 1, अ. 3 कोसते हैं। कहते हैं-भला हुआ जो पापी मर गया ! इस प्रकार का जनवाद सुन कर उस चोर के आत्मीय जनों को लज्जित होना पड़ता है। वे दूसरों के सामने अपना शिर ऊँचा नहीं कर पाते / इस प्रकार चोर स्वयं तो यातनाएँ भुगतता ही है, अपने पारिवारिक जनों को भी लज्जित करता है / फिर भी क्या चोरी के पाप से होने वाली विडम्बनाओं का अन्त पा जाता है ? नहीं / आगे पढिए। पाप और दुर्गति की परम्परा ७६--मया संता पुणो परलोग-समावण्णा णरए गच्छति णिरभिरामे अंगार-पलित्तककप्पअच्चत्थ-सोयवेयण-अस्साउदिण्ण-सययदुक्ख-सय-समभिददुए, तो वि उव्वट्टिया समाणा पुणो वि पवज्जति तिरियजोणि तहि पि णिरयोवमं अणहवंति बेयणं, ते अणंतकालेण जइ णाम कहि वि मणुयभावं लभंति णेगेहिं गिरयगइ-गमण-तिरिय-भव-सयसहस्स-परियटटेहिं / / तत्थ वि य भवंतऽणारिया णीय-कुल-समुप्पण्णा प्रारियजणे वि लोगबज्झा तिरिक्ख भूया य अकुसला कामभोगतिसिया जहि णिबंधति णिरयवत्तणिभवप्पवंचकरण-पणोल्लि पुणो वि संसारावत्तणेममूले धम्मसुइ-विवज्जिया अणज्जा कूरा मिच्छत्तसुइपवण्णा य होंति एगंत-दंड-रुइणो वेढेता कोसिकारकोडोव्य अप्पगं अट्ठकम्मतंतु-घणबंधणेणं / ७६-(चोर अपने दुःखमय जीवन का अन्त होने पर) परलोक को प्राप्त होकर नरक में उत्पन्न होते हैं / नरक निरभिराम है-वहाँ कोई भी अच्छाई नहीं है और आग से जलते हुए घर के समान (अतीव उष्ण वेदना वाला या) अत्यन्त शीत वेदना वाला होता है। (तीव्र) असातावेदनीय कर्म को उदोरणा के कारण सैकड़ों दुःखों से व्याप्त है। (लम्बी आयु पूरी करने के पश्चात्) नरक से उद्वर्त्तन करके-उबर कर-निकल कर फिर तियंचयोनि में जन्म लेते हैं। वहाँ भी वे नरक जैसी असाताबेदना को अनुभव करते हैं। उस तिर्यंचयोनि में अनन्त काल भटकते हैं। किसी प्रकार, अनेकों वार नरकगति और लाखों वार तिर्यंचगति में जन्म-मरण करते-करते यदि मनुष्यभव पा लेते हैं तो वहाँ भी नीच कुल में उत्पन्न होते हैं और अनार्य होते हैं। कदाचित् पार्यकुल में जन्म मिल गया तो वहाँ भी लोकबाह्य-वहिष्कृत होते हैं। पश्नों जैसा जीवन यापन करते हैं, कुशलता से रहित होते हैं अर्थात् विवेकविहीन होते हैं, अत्यधिक कामभोगों की तृष्णा वाले और अनेकों वार नरक-भवों में (पहले) उत्पन्न होने के कु-संस्कारों के कारण नरकगति में उत्पन्न होने योग्य पापकर्म करने की प्रवृत्ति वाले होते हैं / अतएव संसार-चक्र में परिभ्रमण कराने वाले अशुभ कर्मों का बन्ध करते हैं। वे.धर्मशास्त्र के श्रवण से वंचित रहते हैं-पापकर्मों में प्रवृत्त रहने के कारण धर्मशास्त्र को श्रवण करने की रुचि ही उनके हृदय में उत्पन्न नहीं होती। वे अनार्य-शिष्टजनोचित आचार-विचार से रहित, क्रूर-नशंस-निर्दय मिथ्यात्व के पोषक शास्त्रों को अंगीकार करते हैं। एकान्ततः हिंसा में ही उनकी रुचि होती है / इस प्रकार रेशम के कीड़े के समान वे अष्ट कर्म रूपी तन्तुओं से अपनी आत्मा को प्रगाढ बन्धनों से जकड़ लेते हैं। विवेचन--अदत्तादान-पाप के फलस्वरूप जीव की उसी भव संबंधी व्यथाओं का विस्तार. पूर्वक वर्णन करने के पश्चात् शास्त्रकार ने परभव संबंधी दशाओं का दिग्दर्शन यहाँ कराया है। चोरी के फल भोगने के लिए चोर को नरक में उत्पन्न होना पड़ता है। क्योंकि नारक जीव नरक से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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