________________ अरत का परिचय ] [13 विवेचन-जो वस्तु वास्तव में अपनी नहीं है-परायी है, उसे उसके स्वामी की स्वीकृति या अनुमति के विना ग्रहण कर लेना-अपने अधिकार में ले लेना अदत्तादान कहलाता है। हिंसा और मृषावाद के पश्चात् यह तीसरा अधर्मद्वार--पाप है। शास्त्र में चार प्रकार के प्रदत्त कहे गए हैं-(१) स्वामी द्वारा अदत्त (2) जीव द्वारा प्रदत्त (3) गुरु द्वारा प्रदत्त और (4) तीर्थकर द्वारा प्रदत्त / इन चारों में से प्रत्येक के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार-चार भेद होते हैं / अतएव सब मिल कर अदत्त के 16 भेद हैं। महाव्रती साधु और साध्वी सभी प्रकार के अदत्त का पूर्ण रूप से-लीन करण और तीन योग से त्याग किए हुए होते हैं / वे तृम जैसी तुच्छातितुच्छ, जिसका कुछ भी मूल्य या महत्त्व नहीं, ऐसी वस्तु भी अनुमति विना ग्रहण नहीं करते हैं / गृहस्थों में श्रावक और श्राविकाएँ स्थूल अदत्तादान के त्यागी होते हैं / जिस वस्तु को ग्रहण करना लोक में चोरी कहा जाता है और जिसके लिए शासन की ओर से दण्डविधान है, ऐसी वस्तु के अदत्त ग्रहण को स्थूल अदत्तादान कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सामान्य अदत्तादान का स्वरूप प्रदर्शित किया है। अदत्तादान करने वाले व्यक्ति प्राय: विषम काल और विषम देश का सहारा लेते हैं। रात्रि में जब लोग निद्राधीन हो जाते हैं तब अनुकूल अवसर समझ कर चोर अपने काम में प्रवृत्त होते हैं और चोरी करने के पश्चात् गुफा, वोहड़ जंगल, पहाड़ आदि विषम स्थानों में छिप जाते हैं, जिससे उनका पता न लग सके। धनादि की तीव्र तृष्णा, जो कभी शान्त नहीं होती, ऐसी कलुषित बुद्धि उत्पन्न कर देती है, 'जिससे मनुष्य चौर्य-कर्म में प्रवृत्त होकर नरकादि अधम गति का पात्र बनता है। अदत्तादान को प्रकीत्तिकर बतलाया गया है। यह सर्वानुभवसिद्ध है। चोर की ऐसी अपकीत्ति होती है कि उसे कहीं भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती। उस पर कोई विश्वास नहीं करता। चोरी अनार्य कर्म है। प्रार्य-श्रेष्ठ जन तीव्रतर प्रभाव से ग्रस्त होकर और अनेकविध कठिनाइयाँ भे.लकर, घोर कष्टों को सहन कर, यहाँ तक कि प्राणत्याग का अवसर आ जाने पर भी चौर्य कर्म में प्रवृत्त नहीं होते। किन्तु प्राधुनिक काल में चोरी के कुछ नये रूप आविष्कृत हो गए हैं और कई लोग यहाँ तक कहते सुने जाते हैं कि 'सरकार की चोरी, चोरी नहीं है।' ऐसा कह या समझकर जो लोग कर-चोरी आदि करते हैं, वे माति या कुल प्रादि की अपेक्षा से भले आर्य हो परन्तु कर्म से अनार्य हैं / प्रस्तुत पाठ में चोरी को स्पष्ट रूप में अनार्य कर्म कहा है। इसी कारण साधुजनों --सत्पुरुषों द्वारा यह गहित-निन्दित है / अदत्तादान के कारण प्रियजनों एवं मित्रों में भी भेद-फूट उत्पन्न हो जाता है / मित्र, शत्रु बन जाते हैं / प्रेमो भी विरोधी हो जाते हैं। इसकी बदौलत भयंकर नरसंहारकारी संग्राम होते हैं, लड़ाई-झगड़ा होता है, रार-तकरार होती है, मार-पीट होती है। स्तेयकर्म में लिप्त मनुष्य वर्तमान जीवन को ही अनेक दुःखों से परिपूर्ण नहीं बनाता, अपितु भावी जीवन को भी विविध वेदनाओं से परिपूर्ण बना लेता है एवं जन्म-मरण रूप संसार की वृद्धि करता है। ___ अदत्तादान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए शास्त्रकार ने और भी अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है, जिनको सरलता से समझा जा सकता है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org