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________________ उपसंहार ] [1 .56 (ख)-यह दूसरा अधर्मद्वार-मृषावाद है। छोटे-तुच्छ और चंचल प्रकृति के लोग इसका प्रयोग करते-बोलते हैं अर्थात् महान् एवं गम्भीर स्वभाव वाले मृषावाद का सेवन नहीं करते / यह मृषावाद भयंकर है, दुःखकर है, अपयशकर है, वैरकर-वैर का कारण-जनक है। अरति, रति, राग-द्वेष एवं मानसिक संक्लेश को उत्पन्न करने वाला है। यह झूठ, निष्फल कपट और अविश्वास की बहुलता वाला है / नीच जन इसका सेवन करते हैं / यह नृशंस-निर्दय एवं निघुण है / अविश्वासकारक है---मृषावादी के कथन पर कोई विश्वास नहीं करता। परम साधुजनों-श्रेष्ठ सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय है। दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला और परम कृष्णलेश्या से संयुक्त है। दुर्गतिअधोगति में निपात का कारण है, अर्थात् असत्य भाषण से अधःपतन होता है, पुनः पुनः जन्म-मरण का कारण है, अर्थात् भव-भवान्तर का परिवर्तन करने वाला है। चिरकाल से परिचित हैप्रनादि काल से लोग इसका सेवन कर रहे हैं, अतएव अनुगत है-उनके साथ चिपटा है। इसका अन्त कठिनता से होता है अथवा इसका परिणाम दुःखमय ही होता है। // द्वितीय प्रधर्मद्वार समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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