________________ आदि-वचन विश्व के जिन दार्शनिकों-दृष्टानों/चिन्तकों ने "प्रात्मसत्ता" पर चिन्तन किया है, या आत्म-साक्षात्कार किया है, उन्होंने पर-हितार्थ आत्म-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है। प्रात्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन आज आगम/पिटक/वेद/उपनिषद आदि विभिन्न नामों से विश्रुत है। जैनदर्शन की यह धारणा है कि आत्मा के विकारों राग-द्वेष आदि को साधना के द्वारा दूर किया जासकता है, और विकार जब पूर्णतः निरस्त हो जाते हैं तो प्रात्मा की शक्तियां ज्ञान/सुख/वीर्य प्रादि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित-उद्भासित हो जाती हैं / शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ/आप्त-पुरुष की वाणी, वचन कथन/प्ररूपणा-"पागम" के नाम से अभिहित होती है। प्रागम अर्थात तत्त्वज्ञान, प्रात्म-ज्ञान तथा प्राचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र/प्राप्तबचन / सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों/वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन पद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्मप्रवर्तक/अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थकर देव की जनकल्याणकारी वाणी को उन्हीं के अतिशयसम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "आगम' या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिनवचनरूप सुमनों की मुक्त वृष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह "आगम' का रूप धारण करती है। वहीं आगम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए प्रात्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत हैं। "आगम" को प्राचीनतम भाषा में "मणिपिटक" कहा जाता था। अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्र शास्त्रद्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग/प्राचारांग-सूत्रकृतांग आदि के अंग-उपांग आदि अनेक भेदोपभेद विकसित हुए हैं। इस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्ष के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है। बारहवां अंग विशाल एवं समग्र श्रुतज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे। इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हया तथा उसी ओर सबकी गति/मति रही। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब आगमों/शास्त्रों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसलिए आगम ज्ञान को.. श्रुतज्ञान कहा गया और इसीलिए श्रुति स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक प्रागमों का ज्ञान स्मृति श्रुति परम्परा पर ही आधारित रहा / पश्चात् स्मृतिदौर्बल्य, गुरुपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव आदि अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान लुप्त होता चला गया। महासरोबर का जल सूखता-सूखता गोष्पदमात्र रह गया। मुमुक्ष श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी। वे तत्पर हए श्रतज्ञान-निधि के संरक्षण हेत / तभी महान श्रतपारगामी देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने बिद्वान श्रमणों का एक सम्मेलन बलाया और स्मति-दोष से लप्त हो पागम ज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्वसम्मति से आगमों को लिपि-बद्ध किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org