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________________ फल-विपाक की भयंकरता] होता है। दीनता, दरिद्रता उसका पीछा नहीं छोड़ती। सुख-साधन उसे प्राप्त नहीं होते। उनका शरीर कुरूप, फटी चमड़ी वाला, दाद, खाज, फोड़ों-फुन्सियों से व्याप्त रहता है। उनके शरीर से दुर्गन्ध फूटती है / उन्हें देखते ही दूसरों को ग्लानि होती है। मृषावादी की बोली अस्पष्ट होती है। वे सही उच्चारण नहीं कर पाते / उनमें से कई तो गूगे ही होते हैं / उनका भाषण अप्रिय, अनिष्ट और अरुचिकर होता है / / उनका न कहीं सत्कार-सन्मान होता है, न कोई आदर करता है। काक सरीखा अप्रीतिजनक उनका स्वर सुन कर लोग घृणा करते हैं। वे सर्वत्र ताड़ना-तर्जना के भागी होते हैं। मनुष्यभव पाकर भी वे अत्यन्त अधम अवस्था में रहते हैं। जो उनसे भी अधम हैं, उन्हें उनकी दासता करनी पड़ती है। रहने के लिए खराब वस्ती, खाने के लिए खराब भोजन और पहनने के लिए गंदे एवं फटे-पुराने कपड़े मिलते हैं। तात्पर्य यह कि मृषावाद का फल-विपाक अतीव कष्टप्रद होता है और अनेक भवों में उसे भुगतना पड़ता है। मृषावादी नरक-तिर्यच गतियों की दारुण वेदनाओं को भोगने के पश्चात् जब मानव योनि में आता है, तब भी वह सर्व प्रकार से दुःखी ही रहता है। शारीरिक और मानसिक क्लेश उसे निरन्तर अशान्त एवं आकुल-व्याकुल बनाये रखते हैं। उस पर अनेक प्रकार के सच्चे-झूठे दोषारोपण किए जाते हैं, जिनके कारण वह घोर सन्ताप की ज्वालाओं में निरन्तर जलता रहता है। ___ इस प्रकार का मृषावाद का कटुक फल-विपाक जान कर विवेकवान् पुरुषों को असत्य से विरत होना चाहिए। फल-विपाक को भयंकरता 56 (क)-एसो सो प्रलिययणस्स फलविवानो इहलोइनो परलोइयो अप्पसुहो बहुदुक्खो महम्मनो बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्को असाम्रो वास-सहस्सेहि मुच्चइ, ण अवेयइत्ता अस्थि हु मोक्खोति। एवमाहंसु गायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधेज्जो कहेसि य प्रलियवयणस्स फलविवागं। 56 (क)-मृषावाद का यह (पूर्वोक्त) इस लोक और परलोक सम्बन्धी फल विपाक है। इस फल-विपाक में सुख का अभाव है और दुःखों को ही बहुलता है / यह अत्यन्त भयानक है और प्रगाढ कर्म-रज के बन्ध का कारण है। यह दारुण है, कर्कश है और असातारूप है। सहस्रों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है। फल को भोगे विना इस पाप से मुक्ति नहीं मिलती-इसका फल भोगना ही पड़ता है। ज्ञातकुलनन्दन, महान् आत्मा वीरवर महावीर नामक जिनेश्वर देव ने मृषावाद का यह फल प्रतिपादित किया है / विवेचन--प्रस्तुत पाठ में मृषावाद के कटुक फलविपाकु का उपसंहार करते हुए तीन बातों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है :--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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