________________ मृषावाद का भयानक फल ] शान्तिकर्म, होम, स्नान, यज्ञ प्रादि का उल्लेख यह प्रमाणित करता है कि प्रारंभसमारंभ-हिंसा को उत्तेजन देने वाला प्रत्येक वचन, भले ही यह तथ्य हो या अतथ्य, मृषावाद में ही परिगणित है / अतएव सत्यवादी सत्पुरुष को अपने सत्य की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए हिंसाजनक अथवा हिंसाविधायक वचनों का भी परित्याग करना चाहिए। ऐसा करने पर ही उसके सत्यभाषण का संकल्प टिक सकता है ---उसका निरतिचाररूपेण परिपालन हो सकता है / मृषावाद का भयानक फल ५८-तस्स य प्रलियस्स फलविवागं भयाणमाणा घड्ढे ति महाभयं अविस्सामवेयणं दोहकालं बहुदुक्खसंकडं गरयतिरियजोणि, तेण य अलिएण समणबद्धा आइद्धा पुणब्भबंधयारे भमंति मोमे दुग्गइवसहिमुवगया। ते य दीसंति इह दुग्गया दुरंता परवस्सा प्रत्थभोगपरिवज्जिया प्रसुहिया फुडियच्छवि-जोमच्छ-विवष्णा, खरफरुसविरसम्झाम झसिरा, णिच्छाया, लल्लविफलवाया, प्रसक्कयमसक्कया प्रगंधा प्रयणा दुभगा प्रकता काकस्सरा होणभिण्णघोसा विहिंसा जडबहिरंधया' य मम्मणा अतविकयकरणा, गोया णीयजणणिसे विणो लोयगरहणिज्जा भिच्चा प्रसरिसजणस्स पेस्सा दुम्मेहा लोय-वेय-प्रझप्पसमयसुइज्जिया, जरा धम्मबुद्धिवियला। मलिएण य तेणं पडझमाणा असंतएण य प्रमाणणपिढिमंसाहिक्लेव-पिसुण-भेयण-गुरुबंधव. सयण-मित्तवक्खारणाइयाई अभक्खाणाई बहुविहाई पावेंति अमणोरमाहं हिययमणदूमगाई जावज्जोवं दुरुचराई अणिढ-खरफरुसवयण-तज्जण-णिम्भन्छणदोणवयणविमला कुमोयणा कुवाससा कुवसहीसु किलिस्संता व सुहं णेव.णिम्जुई उवलभंति प्रच्चंत-विउलदुक्खसयसंपलिता / ५८-पूर्वोक्त मिथ्याभाषण के फल-विपाक से अनजान वे मृषावादी जन नरक और तिर्यञ्च योनि की वृद्धि करते हैं, जो अत्यन्त भयंकर हैं, जिनमें विश्रामरहित-निरन्तरलगातार वेदना भुगतनी पड़ती है और जो दीर्घकाल तक बहुत दुःखों से परिपूर्ण हैं। (नरकतियंच योनियों में लम्बे समय तक घोर दुःखों का अनुभव करके शेष रहे कर्मों को भोगने के लिए) वे मषावाद में निरत-लीन नर भयंकर पुनर्भव के अन्धकार में भटकते हैं। उस पुनर्भव में भी दुर्गति प्राप्त करते हैं, जिसका अन्त बड़ी कठिनाई से होता है। वे मृषावादी मनुष्य पुनर्भव (इस भव) में भी पराधीन होकर जीवन यापन करते हैं। वे मर्थ और भोगों से परिवजित होते हैं अर्थात् उन्हें न तो भोगोपभोग का साधन प्रर्थ (धन) प्राप्त होता है और न वे मनोज्ञ भोगोपभोग ही प्राप्त कर सकते हैं। वे (सदा) दुःखी रहते हैं। उनकी चमड़ी बिवाई, दाद, खुजली आदि से फटी रहती है, वे भयानक दिखाई देते हैं और विवर्ण-कुरूप होते हैं / कठोर स्पर्श वाले, रतिविहीन-बेचैन, मलीन एवं सारहीन शरीर वाले होते हैं। शोभाकान्ति से रहित होते हैं। वे अस्पष्ट और विफल बाणी वाले होते हैं अर्थात् न तो स्पष्ट उच्चारण कर सकते हैं और न उनकी वाणी सफल होती है। वे संस्काररहित (गंवार) और सत्कार से रहित होते हैंउनका कहीं सन्मान नहीं होता। वे दुर्गन्ध से व्याप्त, विशिष्ट चेतना से विहीन, अभागे, अकान्त 1. जडबहिरमूया-पाठ भी मिलता है। 2. संपउत्ता-पाठ भी है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org