SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मृषावाद] [65 पुरुष चेतन और प्रकृति जड़ है और प्रकृति को ही संसार, बन्ध और मोक्ष होता है / जड़ प्रकृति में बन्ध-मोक्ष-संसार मानना मृषावाद है / उससे बुद्धि की उत्पत्ति कहना भी विरुद्ध है। सांख्यमत में इन्द्रियों को पाप-पुण्य का कारण माना है, किन्तु वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ नामक उनकी मानी हुई पांच कर्मेन्द्रियाँ जड़ हैं। वे पाप-पुण्य का उपार्जन नहीं कर सकतीं। स्पर्शन आदि पांच ज्ञानेन्द्रियां भी द्रव्य और भाव के भेद से दो-दो प्रकार की हैं। द्रव्येन्द्रियां जड़ हैं। वे भी पुण्य-पाप का कारण नहीं हो सकतीं। भावेन्द्रियां प्रात्मा से कथंचित् अभिन्न हैं। उन्हें कारण मानना आत्मा को ही कारण मानना कहलाएगा। ___ आत्मा को एकान्त नित्य (कूटस्थ अपरिणामी), निष्क्रिय, निर्गुण और निर्लेप मानना भी अप्रामाणिक है / जब प्रात्मा सुख-दुःख का भोक्ता है तो अवश्य ही उसमें परिणाम-अवस्थापरिवर्तन मानना पड़ेगा। अन्यथा कभी सुख का भोक्ता और कभी दुःख का भोक्ता कैसे हो सकता है ? एकान्त अपरिणामी होने पर जो सुखी है, वह सदैव सुखी ही रहना चाहिए और जो दु:खी है, वह सदैव दुःखी ही रहना चाहिए। इस अनिष्टापत्ति को टालने के लिए सांख्य कह सकते हैं कि आत्मा परमार्थतः भोक्ता नहीं है / बुद्धि सुख-दुःख का भोग करती है और उसके प्रतिविम्बमात्र से आत्मा (पुरुष) अपने आपको सुखी-दुःखी अनुभव करने लगता है / मगर यह कथन संगत नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि जड़ प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण जड़ है और जड़ को सुख-दुःख का अनुभव हो नहीं सकता। जो स्वभावतः जड़ है वह पुरुष के संसर्ग से भी चेतनावान् नहीं हो सकता। . आत्मा को क्रियारहित मानना प्रत्यक्ष से बाधित है। उसमें गमनागमन, जानना-देखना आदि क्रियाएँ तथा सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि की अनुभूतिरूप क्रियाएँ प्रत्यक्ष देखी जाती हैं। आत्मा को निर्गुण मानना किसी अपेक्षाविशेष से ही सत्य हो सकता है, सर्वथा नहीं। अर्थात् प्रकृति के गुण यदि उसमें नहीं हैं तो ठीक, मगर पुरुष के गुण ज्ञान-दर्शनादि से रहित मानना योग्य नहीं है। ज्ञानादि गुण यदि चैतन्यस्वरूप प्रात्मा में नहीं होंगे तो किसमें होंगे? जड़ में तो चैतन्य का होना असंभव है। वस्तुतः आत्मा चेतन है, द्रव्य से नित्य-अपरिणामी होते हुए भी पर्याय से अनित्य-परिणामी है, अपने शुभ और अशुभ कर्मों का कर्ता है और उनके फल सुख-दुःख का भोक्ता है। अतएव वह' सर्वथा निष्क्रिय और निर्गुण नहीं हो सकता। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में जगत् की उत्पत्ति और प्रात्मा संबंधी मृषावाद का उल्लेख किया गया है। मृषावाद ५०-जंवि इह किचि जीवलोए दोसइ सुकयं वा दुकयं वा एवं जदिच्छाए वा सहावेण वावि दइवतप्पभावप्रो वावि भवइ। णत्थेत्थ किचि कयगं तत्तं लक्षणविहाणणियत्तीए कारियं एवं केइ जपंति इडि-रस-सायागारवपरा बहवे करणालसा परूवेंति धम्मवीमंसएणं मोसं / ५०-कोई-कोई ऋद्धि, रस और साता के गारव (अहंकार) से लिप्त या इनमें अनुरक्त बने हुए और क्रिया करने में प्रालसी बहुत से वादी धर्म की मीमांसा (विचारणा) करते हुए इस प्रकार मिथ्या प्ररूपणा कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy