________________ 56] [ अन्तकृद्दशा राजपुरुषों का प्रवेश निषिद्ध किया जाय, दंड (अपराध के अनुसार लिया जाने वाला द्रव्य) और कुदंड (अल्प दंड-बड़ा अपराध करने पर भी लिया जाने वाला थोड़ा द्रव्य) न लिया जाय, किसी को ऋणी न रहने दिया जाय अर्थात् राजा की ओर से सब का ऋण चुका दिया जाय / किसी देनदार को पकड़ा न जाय, ऐसी घोषणा कर दो। तथा सर्वत्र मृदंग आदि बाजे बजवानो। चारों ओर विकसित ताजा फूलों की मालाएँ लटकायो। गणिकाएँ जिनमें प्रधान हैं, ऐसे पात्रों से नाटक करवायो। अनेक तालाचारों (प्रेक्षाकारियों) से नाटक करवाओ। ऐसा करो कि लोग हर्षित होकर क्रीडा करें। इस प्रकार यथायोग्य दस दिन की स्थितिपतिका करो करायो और मेरी यह आज्ञा मुझे वापिस सौंपो। राजा वसुदेव का यह आदेश सुनकर वे इसी प्रकार करते हैं और राजाज्ञा वापिस करते हैं / तत्पश्चात् वसुदेव राजा बाहर की उपस्थानशाला (सभा) में, पूर्व की ओर मुख करके, श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा और सैंकड़ों, हजारों और लाखों के द्रव्य से याग (पूजन) एवं दान दिया। प्राय में से अमुक भाग दिया / और प्राप्त होने वाले द्रव्य को ग्रहण करता हुआ विचरने लगा। ___ तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म (नाल काटना आदि) किया। दूसरे दिन जागरिका (रात्रि-जागरण) किया। तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य का दर्शन कराया। इस प्रकार अशुचि जातकर्म की क्रिया सम्पन्न हुई। फिर बारहवाँ दिन पाया तो विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्रों, बन्धु आदि ज्ञातिजनों, पुत्र आदि निजकों, काका आदि स्वजनों, श्वसुर आदि सम्बधिजनों, दास आदि परिजनों तथा सेना-और बहुत से गणनायक, दंडनायक आदि को आमंत्रण दिया। उसके पश्चात् स्नान किया, बलिकर्म किया, मषितिलक आदि कौतुक किया, मंगल किया, प्रायश्चित्त किया और सर्व अलंकारों से विभूषित हुआ। फिर बहुत विशाल भोजन-मंडप में, उस अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन का मित्र, ज्ञाति आदि तथा गणनायक आदि के साथ प्रास्वादन, विस्वादन, परस्पर विभाजन और परिभोग करता हुआ विचरने लगा। इस प्रकार भोजन करने के पश्चात् वे सब बैठने के स्थान पर आये / शुद्ध जल से आचमन (कुल्ला) किया। हाथ-मुह धोकर स्वच्छ हुए, परम शुचि हुए। फिर उन मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन, सम्बन्धीजन, प 1. परिजन अादि तथा गणनायक आदि का विपुल वस्त्र, गंध, माला और अलंकार से सत्कार किया, सम्मान किया, सत्कार-सम्मान करके इस प्रकार कहा] -- "क्योंकि हमारा यह वालक गज के तालु के समान सुकोमल एवं सुन्दर है, अत: हमारे इस बालक का नाम गजसुकुमाल (गजसुकुमार) हो।” इस प्रकार विचार कर उस बालक के माता-पिता ने उसका “गजसुकुमार" यह नाम रखा / शेष वर्णन मेघकुमार के समान समझना / क्रमश: गजसुकुमार भोग भोगने में समर्थ हो गया। विवेचन-इस सूत्र में माता देवकी का स्वप्न में सिंह देखना, जागने पर पतिदेव को अपने स्वप्न का हाल कहना, पतिदेव द्वारा स्वप्नपाठकों को बुलवाना, स्वप्न-पाठकों द्वारा स्वप्नों का रण प्रस्तत करना और स्वप्न का फल बतलाना, गर्भ-संरक्षण करना, यथासमय (नौ मास व्यतीत होने पर) हाथी के तालु के समान रक्त एवं कोमल पुत्र का जन्म होना, और उसका गजसुकुमार नाम-संस्कार करना, अन्त में गजसुकुमार का बाल्यावस्था से युवावस्था में पदार्पण करना, इन सब बातों का वर्णन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org