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________________ 54 ] अन्तकृद्दशा मंगलकारक स्वप्न देखा है। इस प्रकार वसुदेव राजा ने इष्ट यावत मधुर वचनों से देवकी देवी को यही बात दो तीन बार कही। वसुदेव राजा की पूर्वोक्त बात सुनकर और अवधारण कर देवकी देवी हर्षित एवं संतुष्ट हुई और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली--हे देवानुप्रिय ! आपने जो कहा है वह यथार्थ है, सत्य है और सन्देह रहित है। मुझे इच्छित और स्वीकृत है / पुनः पुनः इच्छित एवं स्वीकृत है / इस प्रकार स्वप्न के अर्थ को स्वीकार कर वसुराजा की अनुमति से भद्रासन से उठी और शीघ्रता एवं चपलता रहित गति से अपने शयनागार में आकर शय्या पर बैठी। रानी ने विचार किया 'यह मेरा उत्तम, प्रधान और, मंगलरूप स्वप्न दूसरे पाप-स्वप्नों से विनष्ट न हो जाय' अतः वह देव गुरु सम्बन्धी प्रशस्त और मंगलरूप धार्मिक कथाओं और विचारणाओं से स्वप्न-जागरण करती हुई बैठी रही। प्रातःकाल होने पर वसुदेव राजा ने कौटुम्बिक ( सेवक ) पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा--- "देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र जाग्रो और ऐसे स्वप्नपाठकों को बुलायो-जो अष्टांग महानिमित्त के सूत्र एवं अर्थ के ज्ञाता हों और विविध शास्त्रों के ज्ञाता हों ! राजाज्ञा को स्वीकार कर कौटुम्बिक पुरुष शीघ्र, चपलतायुक्त, वेगपूर्वक एवं तीव्र गति से द्वारका नगरी के मध्य होकर स्वप्नपाठकों के घर पहुंचे और उन्हें राजाज्ञा सुनायी। स्वप्नपाठक प्रसन्न हुए। उन्होंने स्नान करके शरीर को अलंकृत किया। वे मस्तक पर सर्षप और हरी दूब से मंगल करके अपने-अपने घर से निकले और राज्यप्रासाद के द्वार पर पहुंचे। फिर वे सभी स्वप्नपाठक एकत्रित होकर बाहर की उपस्थानशाला में आये। उन्होंने हाथ जोड़कर जय-विजय शब्दों से वसुराजा को बधाया। वसुदेव राजा से वन्दित, पूजित, सत्कृत और सम्मानित किये हुए वे स्वप्नपाठक, पहले से रखे हुए उन भद्रासनों पर बैठे। वसुराजा ने देवकी देवी को बुलाकर यवनिका के भीतर बैठाया / तत्पश्चात् हाथों में पुष्प और फल लेकर राजा ने अतिशय विनयपूर्वक उन स्वप्नपाठकों से इस प्रकार कहा- "देवानुप्रियो! अाज देवकी देवी ने तथारूप (पूर्ववणित) वासगृह में शयन करते हुए स्वप्न में सिंह देखा / हे देवानुप्रियो ! इस प्रकार के स्वप्न का क्या फल होगा?" वसु राजा का प्रश्न सुनकर, उसका अवधारण करके स्वप्नपाठक प्रसन्न हुए। उन्होंने उस स्वप्न के विषय में सामान्य विचार किया, विशेष विचार किया, स्वप्न के अर्थ का निश्चय किया, परस्पर एक दूसरे के साथ विचार-विमर्श किया और स्वप्न का अर्थ स्वयं जानकर, दूसरे से ग्रहण कर तथा शंकासमाधान करके अर्थ का अन्तिम निश्चय किया और वसुदेव राजा को संबोधित करते हुए इस प्रकार बोले-“देवानुप्रिय ! स्वप्नशास्त्र में बयालीस प्रकार के सामान्य स्वप्न और तीस महास्वप्न, इस प्रकार कुल बहत्तर प्रकार के स्वप्न कहे हैं / इनमें से तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती की माताएं, जब तीर्थंकर या चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं, चौदह महास्वप्न देखती हैं--(१) हाथी, (2) वृषभ, (3) सिंह, (4) अभिषेक की हुई लक्ष्मी, (5) पुष्पमाला, (6) चन्द्र, (7) सूर्य, (8) ध्वजा, (8) कुम्भ (कलश), (10) पद्मसरोवर, (11) समुद्र, (12) विमान अथवा भवन, (13) रत्न-राशि और (14) निधूम अग्नि / इन चौदह महास्वप्नों में से वासुदेव की माता, जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तब, सात स्वप्न देखती हैं / बलदेव की माता, जब बलदेव गर्भ में आते हैं तव, इन चौदह स्वप्नों में से चार महास्वप्न देखती हैं और मांडलिक राजा की माता, इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखती हैं / हे देवानुप्रिय ! देवकी देवी ने एक महास्वप्न देखा है / यह स्वप्न उदार, कल्याणकारी, आरोग्य, तुष्टि एवं मंगलकारी है। सुखसमृद्धि का सूचक है। इससे आपको अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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