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________________ प्रकाशकीय ग्रागमप्रकाशन समिति द्वारा जिस द्रत गति से प्रागमों का प्रकाशन हो रहा है, प्राशा है उससे अागमप्रेमी महानुभावों तथा हमारे अर्थसहायक सज्जनों को अवश्य सन्तोष होगा। प्राचारांग (प्रथम तथा द्वितीय भाग), उपासक दशांग और ज्ञाताधर्मकथांग के पश्चात 'अन्तगडदसांग' पाठकों के कर-कमलों में पहुंचाया जा रहा है। इसके तत्काल बाद ही 'अनुत्तरोववाइय' भी पहुंचने वाला है। इसका मुद्रण लगभग समाप्त हो गया है और शीघ्र ही वह तैयार हो जाएगा। मूत्रकृतांग और स्थानांगसूत्र मुद्रण के लिए प्रेस में दिये जा रहे हैं। समवायांग का अनुवाद हो चुका है, और संशोधन हो रहा है। भगवती और प्रज्ञापनासूत्र का अनुवाद हो रहा है। प्रश्नव्याकरण एवं पीपपातिक सूत्र का सम्पादन लगभग पूर्ण होने में है। उल्लेख करते हुए अतीव प्रसन्नता होती है कि जिनवाणी के प्रचार-प्रसार के इस पावन अनुष्ठान का समाज के ज्ञानप्रेमी सज्जनों ने अच्छा अनुमोदन किया है और विद्वदवर्ग ने भी इसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। अब तक प्राप्त सम्मतियों से---जिनमें से कुछ मुद्रित हो चकी हैं, यह स्पष्ट है। अन्तगडसूत्र का अनुवाद सुविख्यात विदुषो उज्ज्वलकीति स्व० महासती श्रीउज्ज्वल कुमारीजी की सुशिष्या तथा प्राचार्यसम्राट् राष्ट्रसन्त श्रद्धय धी प्रानन्दऋषिजी म. की आज्ञानुवत्तिनी विदुषी महासती श्रीदिव्यप्रभाजी ने किया है। महासतीजी एम. ए. और पी-एच. डी. पदवियों से विभूषित हैं। आपकी मातृभाषा गुजराती है, फिर भी हिन्दी भाषा में यह अनूवाद प्रस्तुत करके आपने हमें जो अमूल्य सहयोग दिया है, उसके लिए आभार प्रकट करने के लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। ग्रन्थमाला के सम्पादक पं. श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने अनुवाद को परिभाजित किया है, फिर भी यदि गुजराती भाषा की अस्पष्ट झलक कहीं दिखाई दे तो भी मूल पागम के प्राशय को स्पष्ट करने में कहीं कुछ भी न्यूनता नहीं पाने पाई है। पर्याप्त परिश्रम करके महासती जी ने इस संस्करण को सर्वजनभोग्य और सुन्दर बनाने का सफल प्रयास किया है। परिशिष्ट देने से शोध करने वाले विद्यार्थियों के लिए भी यह विशेष उपयोगी सिद्ध होगा। हम आशा करते हैं कि अन्य विदुषी महासतियां भी साध्वो श्रीदिव्यप्रभाजी का अनुकरण करके नागे पाएंगी और इस पवित्र आयोजन में हमें सहर हमारे समाज के विख्यात विद्वान तथा मनीषी साहित्यकार श्रीदेवेन्द्र मनिजी शास्त्री ने इस अागम की प्रस्तावना लिखी है। प्रस्तावना में पागम का सांगोपांग निदर्शन करा दिया गया है। प्रारम्भ से ही प्रापका विशिष्ट सहयोग हमें प्राप्त रहा है और पूर्ण विश्वास है कि वह भविष्य में भी प्राप्त रहेगा। श्रमणसंघ के युवाचार्य सर्वतोभद्र पण्डितप्रवर श्री मधुकर मुनिजी म. के प्रति हम अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करना अपना कर्तव्य समझते हैं जिनके दिशानिर्देशन में यह प्रकाशनकार्य हो रहा है, जो प्रस्तुत प्रकाशन के प्रधान सम्पादक हैं और जिनकी दूरदशिता और जिनवाणीप्रेम के कारण ही हमें भी इस सेवा का सौभाग्य प्राप्त हो सका है। भगवदवारणी के प्रचार-प्रसार के इस सात्त्विक अनुष्ठान में अपने सहयोगियों के भी हम कृतज्ञ हैं। अ. भा. स्था. जैन कॉन्फरेंस के तथा इस समिति के अध्यक्ष विवेकत्ति श्रावकवयं सेठ मोहनमलजी सा. चोरडिया, सेठ श्रीकंवरलाल जी वैताला, श्री मूलचन्द जी सुराणा, श्री दौलतराज जो पारख, श्री गुमानमल जी चोरडिया, स्थानीय कोषाध्यक्ष श्री रतनचन्द जी मोदी तथा स्थानीय मंत्री श्रीमान चांदमल जी विनायकिया, पं. शोभाचन्द्र जी भारिल्ल तथा श्रीसुजानमल जी सेठिया आदि का सहयोग विभिन्न रूपों में हमें प्राप्त हो रहा है। इन सबके हम आभारी हैं। पुखराज शीशोदिया जतनराज महता कार्यवाहक अध्यक्ष प्रधानमन्त्री श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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