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________________ परिशिष्ट-२ | | 165 बृहत्कल्प के अनुसार द्वारका के चारों ओर पत्थर का प्राकार था।' वण्हिदसामो में भी यही द्वारका का वर्णन मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने द्वारका का वर्णन करते हुए लिखा है कि वह बारह योजन अायाम वाली और नव योजन विस्तत थी। वह रत्नमयी थी। उसके आसपास 18 हाथ ऊंचा, ह हाथ भूमिगत और 12 हाथ चौड़ा सव ओर से खाई से घिरा हुना किला था। चारों दिशाओं में अनेक प्रासाद और किले थे। राम-कृष्ण के प्रासाद के पास प्रभासा नामक सभा थी। उसके समीप पूर्व में रैवतक गिरि, दक्षिण में माल्यवान शैल, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गंधमादन गिरि थे / प्राचार्य हेमचन्द्र, प्राचार्य शीलाङ्क, देवप्रभसूरि, प्राचार्य जिनसेन, प्राचार्य गुणभद्र आदि श्वेताम्बर व दिगम्बर ग्रन्थकारों ने तथा वैदिक रिवंशपुराण, विष्णुपुराण और श्रीमद्भागवत आदि में द्वारका को समुद्र के किनारे माना है और कितने ही ग्रन्थकारों ने समुद्र से वारह 1. बृहत्कल्प भ ग 2. पृ. 251 2. वण्हिदसायो 3. शक्राज्ञया वैश्रमरणश्चक्रे रत्नमयीं पूरीम् / द्वादशयोजनायाम नक्योजनविस्तृताम् / / 399 / / तुगमष्टादशहस्तान्नवहस्तांश्च भूगतम् / विस्तीर्ण द्वादशहस्तांश्च व सुखातिकम् / / 400 / / -त्रिषष्टि, पर्व 8, सर्ग 5, पृ. 92 4. त्रिपप्टि, पर्व 8, सर्ग 5, पृ. 92 5. चउप्पन्नमहापुरिसचरियं 6. पाण्डवचरित्र 7. सद्यो द्वारवती चके कुवेर. परमां पुरोम् / नगरी द्वादशायामा, नवयोजनविस्ततिः / वज्रप्राकार-वलया, समुद्र-परिखावता। ___- -हरिवंशपुराण 41618-19. 8. अश्वाकृतिधरं देवं समारुह्य पयोनिधेः / गच्छतस्तेऽभवेन्मध्ये, पुरं द्वादशयोजनम् / / 20 / / इत्युक्तो नेगमाख्येन स्वरेण मधुसूदनः। चक्र तथव निश्चित्य सति पुण्ये न कः सखा // 21 // द्वधा भेदमयात् वाधिर्भयादिव हरे रयात् / / _ --उत्तरपुराण 71120-23, पृ. 376 9. हरिवंशपुराण 2 / 54 10. विष्णुपुराण 5 / 23 / 13. 11. इति संमन्त्य भगवान् दुर्ग द्वादश-योजनम् / अन्तः समुद्र नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत् / / -श्रीमद्भागवत 10, अ 5050 (क) ता जह पुचि दिन्न ठाणं नयरीए प्राइमच उण्हं / तुमए तिविठ्ठपमुहाणं वासुदेवाणं सिधुतडे / -भव-भावना 2537 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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