SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 ] [अन्तकृद्दशा इसके बाद वह पद्मावती महारानी भगवान् अरिष्टनेमि से धर्मोपदेश सुनकर एवं उसे हृदय में धारण करके प्रसन्न और सन्तुष्ट हई, उसका हृदय प्रफल्लित हो उठा। यावत वह रहंत नेमिनाथ को वंदना-नमस्कार करके इस प्रकार बोली भंते ! निग्रंथप्रवचन पर मैं श्रद्धा करती हूं। जैसा आप कहते हैं वह वैसा ही है। आपका धर्मोपदेश यथार्थ है / हे भगवन् ! मैं कृष्ण वासुदेव की आज्ञा लेकर फिर देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं। __ प्रभु ने कहा'जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो। हे देवानुप्रिये ! धर्म-कार्य में विलम्ब मत करो।' __ नेमिनाथ प्रभु के ऐसा कहने के बाद पद्मावती देवी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ होकर द्वारका नगरी में अपने प्रासाद में आकर धार्मिक रथ से नीचे उतरी और जहां पर कृष्ण वासुदेव थे वहां आकर अपने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाकर, मस्तक पर अंजलि कर कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोली 'देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो मैं अरिहंत नेमिनाथ के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं।' कृष्ण ने कहा--'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो।' तब कृष्ण वासुदेव ने अपने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार प्रादेश दिया देवानुप्रियो ! शीघ्र ही महारानी पद्मावती के दीक्षामहोत्सव की विशाल तैयारी करो, और तैयारी हो जाने की मुझे सूचना दो। तब आज्ञाकारी पुरुषों ने वैसा ही किया और दीक्षामहोत्सव की तैयारी की सूचना दी। ७-तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमावई देवि पट्टयं दुरुहेइ, अटुसएणं सोवण्णकलसाणं जाव [एवं रुप्पकलसाणं, सुवण्णरुप्पकलसाणं, मणिकलसाणं, सुवन्नमणिकलसाणं, रुप्पमणिकलसाणं, सुवन्नरुप्पमणिकलसाणं, भोमेज्जकलसाणं सन्योदएह, सन्धमट्टियाहिं सवपुप्फेहि सव्वगंधेहिं सव्वमल्लेहि सव्वोसहिहि य, सिद्धत्थएहि य, सन्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं जाव [सम्वसमुदएणं सव्वादरेणं सविमूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वयुप्फगंधमल्लालंकारेणं सब्बतुडिय-सह-सणिणाएणं महया इडढीए महया जईए महया बलेणं महया समदएणं महया वरतडिय-जमगसमगप्पवाइएणं संख-पणवपडह-भेरि-मल्लरि-खरमुहि-हुड़क्क-मुरय-मुइंग-कुंदुभिघोसरवेणं महया महया] महाणिकाखमणाभिसेएणं अभिसिंचइ, अभिसिचित्ता सवालंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणि सिबियं दुरुहावेह, दुरुहावेत्ता बारवईए नयरीए मज्झमझेणं निग्गज्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेक्यए पम्वए, जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयं ठवेइ “पउमावई देवि" सीयानो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अरहा रिढणेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परहं अरिदम तिवखुत्तो प्रायाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी एस णं भंते ! मम अग्गमहिसी पउमावई नामं देवी इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणाभिरामा जाव [जीवियऊसासा हिययाणंदजणिया, उंबरपुप्फ पिव दुल्लहा सवणयाए] किमंग पुण पासणयाए ? तण्णं प्रहं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं दलयामि / पडिच्छंतु णं देवाणप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy