________________ पंचम वर्ग ] [ 66 अपने आगामी भव को यह बात सुनकर कृष्ण वासुदेव खिन्नमन होकर आत ध्यान करने लगे / तब अरिहंत अरिष्टनेमि पुनः इस प्रकार बोले "हे देवानुप्रिय ! तुम खिन्नमन होकर आत ध्यान मत करो। निश्चय से हे देवानुप्रिय ! कालान्तर में तुम तीसरी पृथ्वी से निकलकर इसी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में आने वाले उत्सर्पिणी काल में पुड्र जनपद के शतद्वार नाम के नगर में "अमम" नाम के बारहवें तीर्थकर बनोगे। वहाँ बहुत वर्षों तक केवली पर्याय का पालन कर तुम सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होप्रोगे।" __अरिहंत प्रभु के मुखारविन्द से अपने भविष्य का यह वृत्तान्त सुनकर कृष्ण वासुदेव बड़े प्रसन्न हुए और अपनी भुजा पर ताल ठोकने लगे / जयनाद करके त्रिपदी-भूमि में तीन बार पाँव का न्यास किया-कूदे। थोड़ा पोछे हटकर सिंहनाद किया और फिर भगवान नेमिनाथ को वंदन नमस्कार करके अपने अभिषेक-योग्य हस्ति रत्न पर प्रारूढ हए और द्वारका नग हुए अपने राजप्रासाद में आये। अभिषेकयोग्य हाथी से नीचे उतरे और फिर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी और जहां अपना सिंहासन था वहां आये। वे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजमान हुए। फिर अपने आज्ञाकारी पुरुषों-राजसेवकों को बुलाकर इस प्रकार बोले-~ श्रीकृष्ण की धर्मघोषणा ५–'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! बारवईए नयरीए सिंघाडग जाव [तिग-चउक्क-चच्चर. चउम्मुह-महापहपहेसु हत्थिखंधवरगया महया-महया सद्देणं] उग्घोसेमाणा-उग्धोसेमाणा एवं वयह'एवं खलु देवाणुप्पिया! बारवईए नयरोए नवजोयण जाव' देवलोगभूयाए सुरम्गि-दीवायण-मूलाए विणासे भविस्सइ, तं जो पं देवानुप्पिया ! इच्छइ बारवईए नयरोए राया वा जुवराया वा ईसरे वा तलवरे वा माडंबिय-कोडुबिय-इब्भ-सेट्ठी वा देवी वा कुमारो वा कुमारी वा अरहयो अरिटणेमिस्स अंतिए मुडे जाव पव्वइत्तए, तं गं कण्हे वासुदेवे विसज्जेइ / पच्छातुरस्स वि य से अहापवित्तं वित्ति अणुजाणइ / महया इडिसक्कारसमुदएण य से निक्खमणं करेइ / दोच्चं पि तच्चं पि घोसणयं घोसेह, घोसित्ता ममं एवं प्राणत्तियं पच्चप्पिणह / तए णं ते कोडुबिया जाव पच्चपिणंति / देवानुप्रियो ! तुम द्वारका नगरी के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख महापथों एवं पथों में हस्तिस्कंध पर से जोर-जोर से घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो कि हे द्वारकावासी नगरजनो! इस बारह योजन लंबी यावत् प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान द्वारका नगरी का सुरा, अग्नि एवं द्वैपायन के कोप के कारण नाश होगा, इसलिये हे देवानुप्रियो ! द्वारका नगरी में जिसकी इच्छा हो, चाहे वह राजा हो, युवराज हो, ईश्वर (स्वामी या राजकुमार) हो, तलवर (राजा का मान्य) हो, माडंविक (छोटे गांव का स्वामी) हो, कौटुम्बिक (दो तीन कुटु बों का स्वामी) हो, इभ्य हो, रानी हो, कुमार हो, कुमारी हो, राजरानी हो, राजपुत्री हो, इन में से जो भी प्रभु नेमिनाथ के निकट मुण्डित होकर यावत् दीक्षा लेना चाहे, उसे कृष्ण वासुदेव ऐसा करने की आज्ञा देते हैं। दीक्षार्थी के पोछे उसके आश्रित सभी कुटुबोजनों को भी श्रीकृष्ण यथायोग्य व्यवस्था करेंगे और बड़े ऋद्धि-सत्कार के साथ उसका दीक्षा-महोत्सव संपन्न करेंगे।" इस प्रकार दो-तीन वार घोषणा 1. वर्ग 1, सूत्र-५. 2. वर्ग 5, सूत्र-२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org