________________ [अन्तकृद्दशा य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गढिए गिद्ध अज्झोववण्णे नो संचाएमि अरहओ अरिटुने मिस्स जाव [अंतिए मुडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं] पव्वइत्तए।' 'कण्हाइ !' अरहा रिटणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासो---- "से नणं कण्हा ! तव अयं अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-धण्णा णं ते जालिप्पभिइकुमारा जाव पव्वइया / से नणं कण्हा ! अत्थे समत्थे ? हंता अस्थि / तं नो खलु कण्हा ! एयं भूयं वा भव्वं वा भविस्सइ वा जण्णं वासुदेवा चइत्ता हिरणं जाव: पम्वइस्संति। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ 'म एयं भूयं वा जाव' पब्वइस्संति ? 'कण्हाड !' अरहा अरिटणेमी कण्हं वास देवं एवं वयासी "एवं खलु कण्हा ! सव्वे वि य णं वासुदेवा पुन्वभवे निदाणकडा से एतेण?णं कण्हा! एवं वुच्चइ न एयं भूयं जाव पव्वइस्संति। अरिहन्त अरिष्टनेमि से द्वारका नगरी के विनाश का कारण सुन-समझकर श्रीकृष्ण वासुदेव के मन में ऐसा विचार चिन्तन, प्रार्थित एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि-वे जालि, मयालि, उवयालि, पुरिससेन, वीरसेन, प्रद्युम्न, शाम्ब, अनिरुद्ध, दृढनेमि और सत्यनेमि प्रभृति कुमार धन्य हैं जो हिरण्यादि [संपदा और धन, सैन्य, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर, अन्तःपुर आदि परिजन छोड़कर तथा बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांसा, दृष्य-वस्त्र, मणि, मोती, संख, सिला, मूगा, लालरत्न आदि सारभूत द्रव्य आदि] देयभाग देकर, नेमिनाथ प्रभु के पास मुडित होकर अगार को त्यागकर अनगार रूप में प्रवजित हो गये हैं। मैं अधन्य हूं, 'अकृत-पुण्य हूं कि राज्य, [कोष, कोष्ठागार, सैन्य, वाहन, नगर अन्तःपुर और मनुष्य संबंधी कामभोगों में मूछित हं, इन्हें त्यागकर भगवान् नेमिनाथ के पास मुडित होकर अनगार रूप में प्रवजित होने में असमर्थ हूं। भगवान् नेमिनाथ प्रभु ने अपने ज्ञान-बल से कृष्ण वासुदेव के मन में आये इन विचारों को जानकर आत ध्यान में डूबे हुए कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-“निश्चय ही हे कृष्ण ! तुम्हारे मन में ऐसा विचार उत्पन्न हया-वे जालि, मयालि आदि कुमार धन्य हैं जिन्होंने धन वैभव एवं स्वजनों को त्यागकर मनिव्रत ग्रहण किया और मैं अधन्य हैं, अकृतपण्य हैं जो राज्य त:पर और मनुष्य संबंधी काम-भोगों में गद्ध हूं। मैं प्रभु के पास प्रव्रज्या नहीं ले सकता। हे कृष्ण! क्या यह बात सही है ?" श्रीकृष्ण ने कहा-“हाँ भगवन् ! आपने जो कहा वह सभी यथार्थ है।" प्रभु ने फिर कहा-"तो हे कृष्ण ! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि वासुदेव अपने भव में धन-धान्य-स्वर्ण आदि संपत्ति छोड़कर मुनिनत ले लें। वासुदेव दीक्षा लेते नहीं, ली नहीं एवं भविष्य में कभी लेंगे भी नहीं।" 3. 4. 5. ६-इसी सूत्र में ऊपर पाठ आ चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org