________________ तृतीय वर्ग ] प्यास नहीं सह सकता, वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले विविध रोगों (कोढ आदिको) तथा आतंकों (अचानक मरण उत्पन्न करने वाले शूल आदि) को, ऊँचे-नीचे इन्द्रिय-प्रतिकूल वचनों को, उत्पन्न हुए बाईस परीषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार सहन नहीं कर सकता। अतएव हे लाल ! तू मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोग। बाद में भुक्तभोगी होकर अरिहंत अरिष्टनेमि के समीप प्रव्रज्या अंगीकार करना / तत्पश्चात माता-पिता के इस प्रकार कहने पर गजसकमार कमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! आप मुझे जो यह कहते हैं सो ठीक है कि–'हे पुत्र ! निम्रन्थप्रवचन सत्य है, सर्वोत्तम है, अादि पूर्वोक्त कथन यहाँ दोहरा लेना चाहिए, यावत् बाद में मुक्तभोगी होकर प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना / परन्तु हे माता-पिता ! इस प्रकार यह निर्ग्रन्थ प्रवचन क्लीव-हीन संहनन वाले, कायर-चित्त की स्थिरता रहित, कुत्सित, इस लोक संबंधी विषय सुख की अभिलाषा करने वाले, परलोक के सुख की इच्छा न करने वाले, सामान्य जन के लिये ही दुष्कर है। धीर एवं दृढ़ संकल्प वाले पुरुष को इसका पालन करना कठिन नहीं है। इसका पालन करने में कठिनाई क्या है ? अतएव हे माता-पिता ! आपकी अनुमति पाकर मैं अरिहंत अरिष्टनेमि के समीप प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। तदनन्तर कृष्ण बासुदेव गजसुकुमार के विरक्त होने की बात सुनकर गजसुकुमार के पास आये और आकर उन्होंने गजसुकुमार कुमार का आलिंगन किया, आलिंगन कर गोद में बिठाया, गोद में बिठाकर इस प्रकार बोले 'हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे सहोदर छोटे भाई हो, इसलिये मेरा कहना है कि इस समय भगवान् अरिष्टनेमि के पास मुडित होकर अगार से अनगार बनने रूप दीक्षा ग्रहण मत करो। मैं तुमको द्वारका नगरी में बहुत बड़े समारोह के साथ राज्याभिषेक से अभिषिक्त करूंगा।" तब गजसुकुमार कुमार कृष्ण वासुदेव द्वारा ऐसा कहे जाने पर मौन रहे। कुछ समय मौन रहने के बाद गजसुकुमार अपने बड़े भाई कृष्ण वासुदेव एवं माता-पिता को दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार बोले "हे देवानुप्रियो ! वस्तुतः मनुष्य के कामभोग एवं देह [अपवित्र, अशाश्वत क्षणविध्वंसी और मल-मूत्र-कफ-वमन-पित्त-शुक्र एवं शोणित के भंडार हैं। गंदे उच्छ्वास-निश्वास वाले हैं, खराब मूत्र, मल और पीव से अत्यन्त परिपूर्ण हैं, मल, मूत्र, कफ, नासिकामल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होने वाले हैं। यह मनुष्य-शरीर और ये कामभोग अस्थिर हैं, अनित्य हैं एवं सड़नगलन एवं विध्वंसी होने के कारण आगे पीछे कभी न कभी अवश्य] नष्ट होने वाले हैं। इसलिये हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूँ कि आपकी आज्ञा मिलने पर मैं अरिहंत अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या (श्रमण दीक्षा) ग्रहण कर लू।" गजसुकुमार को दीक्षा २०---तए णं तं गयसुकुमालं कण्हे वासुदेवे अम्मापियरो य जाहे नो संचाएन्ति बयाहिं अणुलोमाहिं जाव' आवित्तए ताहे अकामाई चेव (गयसकुमालं कुमार) एवं वयासो-तं इच्छामो गं ते जाया! एगदिवसमवि रज्जसिरि पासित्तए। 1. पूर्व सूत्र में आगया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org