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________________ तृतीय वर्ग] [65 से पकड़ी जाय, ऐसे वांस के पंखे) से उत्पन्न हुए तथा जलकणों से युक्त वायु से अन्तःपुर के परिजनों द्वारा उसे आश्वासन दिया गया। तब देवकी देवी मोतियों की लड़ी के समान अश्र धारा से अपने स्तनों को सींचने-भिगोने लगी–रुदन करने लगी। वह दयनीय, विमनस्क और दीन हो गई। वह रुदन करती हुई, क्रन्दन करती हुई, पसीना एवं लार टपकाती हुई हृदय में शोक करती हुई और विलाप करती हुई गजसुकुमाल से इस प्रकार कहने लगी "हे पुत्र ! तू हमारा इकलौता बेटा है। तू हमें इष्ट है, कांत है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मणाम है तथा धैर्य और विश्वास का स्थान है। कार्य करने में सम्मत (माना हुआ) है, बहुत कार्यों में बहुत माना हना है और कार्य करने के पश्चात भी अनुमत है। आभूषणों की पेटी के समान है। मनुष्य जाति में उत्तम होने के कारण रत्न है / रत्न रूप है / जीवन के उच्छ्वास के समान है / हमारे हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला है / गलर के फूल के समान तेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की तो बात क्या है ? हे पुत्र! हम क्षण भर के लिए भी तेरा वियोग नहीं सहन करना चाहते / अतएव हे पुत्र ! प्रथम तो जब तक हम जीवित हैं, तब तक मनुष्य संबंधी विपुल काम-भोगों को भोग / फिर जब हम कालगत हो जाएँ और तू परिपक्व उम्र का हो जाय-तेरी युवावस्था पूर्ण हो जाय, कुल-वंश (पुत्र-पौत्र आदि) रूप तंतु का कार्य वृद्धि को प्राप्त जाय, जब सांसारिक कार्य को अपेक्षा न रहे. उस समय तू भगवान् अरिष्टनेमि के पास मुण्डित होकर गृहस्थी का त्याग करके प्रवज्या अंगीकार कर लेना।" तत्पश्चात् माता-पिता के द्वारा इस प्रकार कहने पर गजसुकुमाल ने माता-पिता से इस प्रकार कहा "हे माता-पिता ! आप मुझ से यह जो कहते हैं कि हे पुत्र ! तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, इत्यादि सब पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् सांसारिक कार्य से निरपेक्ष होकर भगवान् अरिष्टनेमि के समीप प्रवजित होना-सो ठीक है, परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्य भव ध्रव नहीं है, अर्थात् सूर्योदय के समान नियमित समय पर पुनः पुन: प्राप्त होने वाला नहीं है, नियत नहीं है अर्थात् इस जीवन में उलट-फेर होते रहते हैं, अशाश्वत है अर्थात् क्षण विनश्वर है, सैकड़ों संकटों एवं उपद्रवों से ब्याप्त है, बिजली की चमक के समान चंचल है, अनित्य है, जल के बुलबुले के समान है, दूब की नोक पर लटकने वाले जलबिन्दु के समान है, सन्ध्यासमय के बादलों के सदृश है, स्वप्न-दर्शन के समान है-अभी है और अभी नहीं है, कुष्ठ आदि से सड़ने, तलवार आदि से कटने और क्षीण होने के स्वभाव वाला है / तथा आगे या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य है। हे माता-पिता ! कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा (मरेगा) और कौन पीछे जाएगा? अतएव हे माता-पिता ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके भगवान् अरिष्टनेमि के समीप यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ।" तत्पश्चात् माता-पिता ने गजसुकुमाल से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! तुम्हारे पितामह, पिता के पितामह और पिता के प्रपितामह से आया हुआ यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांसा, दूप्य-वस्त्र, मणि, मोती, शंख, सिला, मूगा, लाल रत्न आदि सारभूत द्रव्य विद्यमान है / यह इतना है कि सात पीढ़ियों तक भी समाप्त न हो। इसका तुम खूब दान करो, स्वयं भोग करो और बंटवारा करो। हे पुत्र ! यह जितना मनुष्य सम्बन्धी ऋद्धि-सत्कार का समुदाय है, उतना सब तुम भोगो। उसके बाद अनुभूत-कल्याण होकर तुम भगवान् अरिष्टनेमि के समीप दीक्षा ग्रहण कर लेना।' तत्पश्चात् गजसुकुमाल ने माता-पिता से कहा-हे माता-पिता ! आप जो कहते हैं सो ठीक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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