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________________ प्रथम स्थान ] [16 जघन्य प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा एक है (235) / उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा एक है (236) अजघन्योत्कृष्ट, (न जघन्य, न उत्कृष्ट, किन्तु दोनों के मध्यवर्ती) प्रदेशवाले स्कन्धों की वर्गणा एक है (237) / जघन्य अवगाहना वाले स्कन्धों की वर्गणा एक है (238) / उत्कृष्ट अवगाहना वाले स्कन्धों की वर्गणा एक है (239) / अजघन्योत्कृष्ट अवगाहना वाले स्कन्धों की वर्गणा एक है (240) / जघन्य स्थिति वाले स्कन्धों की वर्गणा एक है (241) / उत्कृष्ट स्थितिवाले पुद्गलों की वर्गणा एक है (242) / अजघन्योत्कृष्ट स्थिति वाले स्कन्धों की वर्गणा एक है (243) जघन्य गुण काले स्कन्धों को वर्गणा एक है (244) / उत्कृष्ट गुण काले स्कन्धों की वर्गणा एक है (245) अजघन्योत्कृष्ट गुण काले स्कन्धों की वर्गणा एक है (246) / इसी प्रकार शेष सभी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शों के जघन्य गुण, उत्कृष्ट गुण और अजघन्योत्कृष्ट गुणवाले पुद्गलों (स्कन्धों) की वर्गणा एक एक है। विवेचन-पुद्गलपद में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से पुद्गल वर्गणाओं की एकता का विचार किया गया है / सूत्राङ्क 230 में द्रव्य की अपेक्षा से, सूत्राङ्क 231 में क्षेत्र की अपेक्षा से, सूत्राङ्क 232 में काल की अपेक्षा से और सूत्राङ्क 233 में भाव की अपेक्षा कृष्ण रूप गुण की एकता का वर्णन है। शेष रूपों एवं रस आदि की अपेक्षा एकत्व की सूचना सूत्राङ्क 234 में की गई है / इसी प्रकार सूत्राङ्क 235 से 247 तक के सूत्रों में उक्त वर्गणाओं का निरूपण जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यगत स्कंध-भेदों की अपेक्षा से किया गया है। जम्बूद्वीप-पद २४८–एगे जंबुद्दोवे दोवे सव्वदीवसमुदाणं जावं [सध्वम्भतराए सव्वखुड्डाए, व? तेल्लापूयसंठाणसंठिए, वट्ट रहचक्कवालसंठाणसंठिए, य? पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए, वट्ट पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए, एगं जोयणसयसहस्सं पायामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोण्णि य सत्तावोसे जोयणसए तिग्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणसयं तेरस अंगुलाई०] अद्धगुलगं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं / सर्व द्वीपों और सर्व समुद्रों में सबसे आभ्यन्तर (मध्य में) जम्बूद्वीप नाम का एक द्वीप है, जो सबसे छोटा है / वह तेल-(में तले हुए) पूर्व के संस्थान (आकार) से संस्थित वृत्त (गोलाकार) है, रथ के चक्र-संस्थान से संस्थित वृत्त है, कमल-कणिका के संस्थान से संस्थित वृत्त है, तथा परिपूर्ण चन्द्र के संस्थान से संस्थित वृत्त है / वह एक लाख योजन अायाम (लम्बाई) और विष्कम्भ (चौड़ाई) वाला है / उसकी परिधि (घेरा) तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोश, अट्ठाईस धनुष, तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक है (248) / महावीर-निर्वाण-पद २४६--एगे समणे भगवं महावीरे इमोसे ओसप्पिणोए चउव्वोसाए तित्थगराणं चरमतित्थयरे सिद्ध बुद्ध मुत्ते जाव [अंतगडे परिणिन्वुडे०] सव्वदुक्खप्पहोणे। इस अवसपिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में चरम (अन्तिम) तीर्थकर श्रमण भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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