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________________ प्रथम स्थान ] [ 15 कृष्णलेश्यावाले सम्यग्दृष्टि जीवों की वर्गणा एक है (207) / कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवों की वर्गणा एक है (208) / कृष्णलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादष्टि जीवों की वर्गणा एक है (206) / इसी प्रकार कृष्ण प्रादि छहों लेश्यावाले वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में जिसके जितनी दृष्टियाँ होती हैं, उसके अनुसार उसकी वर्गणा एक-एक है (210) / २११–एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाणं वग्गणा। २१२-एगा कण्हलेसाणं सुक्कपक्खियाणं वग्गणा / 213 - जाव वेमाणियाणं / जस्स जति लेसाप्रो एए प्रह, चउवीसदंउया। कृष्णलेश्यावाले कृष्णपाक्षिक जीवों की वर्गणा एक है (211) / कृष्णालेश्यावाले शुक्ल पाक्षिक जीवों की वर्गणा एक है (212) इसी प्रकार जिनमें जितनी लेश्याएं होती हैं, उसके अनुसार कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक जीवों की वर्गणा एक-एक है। ये ऊपर बतलाये गये चौबीस दण्डकों की वर्गणा के पाठ प्रकरण हैं (213) / विवेचन-लेश्या का आगम-सूत्रों और शास्त्रों में विस्तृत वर्णन पाया जाता है। उसमें से संस्कृत टीकाकार अभयदेव सूरिने 'लिश्यते प्राणी यया सा लेश्या' यह निरुक्ति-परक अर्थ प्राचीन दो श्लोकों को उद्धृत करते हुए किया है। अर्थात् जिस योग परिणति के द्वारा जीव कर्म से लिप्त होता है उसे लेश्या कहते हैं / अपने कथन की पुष्टि में प्रज्ञापना वृत्तिकार का उद्धरण भी उन्होंने दिया है। आगे चलकर उन्होंने लिखा है कि कुछ अन्य प्राचार्य कर्मों के निष्यन्द या रस को लेश्या कहते हैं। किन्तु पाठों कर्मों का और उनकी उत्तर प्रकृतियों का फलरूप रस तो भिन्न-भिन्न प्रकार होता है, अतः सभी कर्मों के रस को लेश्या इस पद से नहीं कहा जा सकता है। प्रागम में जम्बू वृक्ष के फल को खाने के लिए उद्यत छह पुरुषों की विभिन्न मनोवृत्तियों के अनुसार कृष्णादि लेश्याओं का उदाहरण दिया गया है, उससे ज्ञात होता है कि कषाय-जनित तीव्र-मन्द आदि भावों की प्रवृत्ति का नाम भावलेश्या है और वर्ण नाम कर्मोदय-जनित शरीर के कृष्ण, नील आदि वर्गों का नाम द्रव्यलेश्या है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में लेश्याओं का सोलह अधिकारों-द्वारा विस्तृत विवेचन किया गया है। वहां बताया गया है कि जो प्रात्मा को पुण्य-पाप कर्मों से लिप्त करे ऐसी कषायके उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। उसके मूल में दो भेद हैं-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। दोनों ही लेश्याओं के छह भेद कहे गये हैं। उनके नाम और लक्षण इस प्रकार हैं 1 कृष्णलेश्या-कृष्ण वर्णनाम कर्म के उदय से जीव के शरीर का भौंरे के समान काला होना द्रव्य-कृष्णलेश्या है। क्रोधादिकषायों के तीव्र उदय से अति प्रचण्ड स्वभाव होना, दया-धर्म से रहित हिंसक कार्यों में प्रवृत्ति होना, उपकारी के साथ भी दुष्ट व्यवहार करना और किसी के वश में नहीं पाना भावकृष्ण लेश्या है / इस लेश्या वाले के भाव फल के वृक्ष को देख कर उसे जड़ से उखाड़ कर फल खाने के होते हैं। 2. नील लेश्या-नीलवर्ण नामकर्म के उदय से जीव के शरीर का मयूर-कण्ठ के समान नीला होना द्रव्य नीललेश्या है। इन्द्रियों में विषयों की तीव्र लोलुपता होना, हेय-उपादेय के विवेक से For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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