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________________ 12] [ स्थानाङ्गसूत्रम जीवों की वर्गणा एक है (154) / वायुकायिक जीवों की वर्गणा एक है (155) / वनस्पतिकायिक जीवों की वर्गणा एक है (156) / द्वीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (157) / त्रीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (158) / चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (159) / पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों की वर्गणा एक है (160) / मनुष्यों की वर्गणा एक है (161) / वान-व्यन्तर देवों की वर्गणा एक है (162) / ज्योतिष्क देवों की वर्गणा एक है (163) / और वैमानिक देवों की वर्गणा एक विवेचन--- दण्डक का अर्थ यहाँ वाक्यपद्धति अथवा समानजातीय जीवों का वर्गीकरण करना है और वर्गणा समुदाय को कहते हैं। उक्त चौवीस दण्डकों में नारकी जीवों का एकदण्डक, भवनवासी देवों के दश दण्डक, स्थावरकायिक एकेन्द्रिय जीवों के पाँच दण्डक, द्वीन्द्रियादि तिर्यंचों के चार दण्डक, मनुष्यों का एक दण्डक, व्यन्तरदेवों का एक दण्डक, ज्योतिष्क देवों का एक दण्डक और वैमानिक देवों का एक दण्डक / इस प्रकार सब चौवीस दण्डक होते हैं। प्रत्येक दण्डक की एक-एक वर्गणा होती है। आगमों में संसारी जीवों का वर्णन इन चौवीस दण्डकों (वर्गो) के आश्रय से किया गया है। मध्य-अभव्यसिद्धिक-पद १६५---एगा भवसिद्धियाणं वग्गणा। १६६--एगा अभवसिद्धियाणं वग्गणा। १६७-एगा भवसिद्धियाणं रइयाणं वग्गणा। १६८–एगा प्रभवसिद्धियाणं गैरइयाणं वग्गणा। १६६-एवं जाव एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा।। भव्यसिद्धिक जीवों की वर्गणा एक है (165) / अभव्यसिद्धिक जीवों की वर्गणा एक है (166) / भव्यसिद्धिक नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (167) / अभव्य सिद्धिक नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (168) / इसी प्रकार भव्य सिद्धिक अभव्यसिद्धिक (असुरकुमारों से लेकर) वैमानिक देवों तक के सभी दण्डकों की वर्गणा एक-एक है (166) / विवेचन-संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं-भव्यसिद्धिक या भवसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक या अभवसिद्धिक। जिन जीवों में सिद्ध पद पाने की योग्यता होती है, वे भव्यसिद्धिक कहलाते हैं और जिनमें यह योग्यता नहीं होती है वे अभव्यसिद्धिक कहलाते हैं। यह भव्यपन और अभव्यपन किसी कर्म के निमित्त से नहीं, किन्तु स्वभाव से ही होता है, अतएव इसमें कभी परिवर्तन नहीं हो सकता। भव्यजीव कभी अभव्य नहीं बनता और अभव्य कभी भव्य नहीं हो सकता। दृष्टि-पद १७०--एगा सम्मििट्टयाणं वग्गणा। १७१–एगा मिच्छद्दिष्टियाणं वग्गणा। १७२–एगा सम्मामिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा। १७३-एगा सम्मद्दिट्ठियाणं रइयाणं वग्गणा। १७४–एगा मिच्छद्दिट्टियाणं णेरल्याणं वग्गणा / १७५--एगा सम्मामिच्छद्दिटियाणं णेरइयाणं वग्गणा / १७६-एवं जाव थणियकुमाराणं वग्गणा। १७७---एगा मिच्छद्दिट्टियाणं पुढविक्काइयाणं वग्गणा। १७८-एवं जाव वणस्सइकाइयाणं / १७६–एगा सम्मद्दिट्टियाणं बेइंदियाणं वग्गणा / १८०–एगा मिच्छद्दिट्टियाणं बेइंदियाणं वग्गणा। १८१–१[एगा सम्मद्दिट्ठियाणं तेइंदियाणं वग्गणा / १८२---एगा मिच्छद्दिट्टियाणं 1. पाठान्तर--सं. पा...-एवं तेइंदियाणं विचउरिदियाणं वि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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