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________________ 10] [स्थानाङ्गसूत्रम् प्राणातिपात (हिंसा) एक है (61) / मृषावाद (असत्यभाषण) एक है (62) / अदत्तादान (चोरी) एक है (63) मैथुन (कुशील) एक है (64) / परिग्रह एक है (65) / क्रोध कषाय एक है (66) / मान कषाय एक है (67) / माया कषाय एक है (68) लोभ कषाय एक है (66) प्रेयस् (राग) एक है (100) द्वष एक है (101) कलह एक है (102) / अभ्याख्यान एक है (103) / पैशुन्य एक है (104) / पर-परिवाद एक है (105) / अरति-रति एक है (106) मायामृषा एक - है (107) / और मिथ्यादर्शनशल्य एक है (108) / विवेचन-यद्यपि मृषा और माया को पृथक्-पृथक् पाप माना गया है, किन्तु सत्रहवें पाप का नाम माया-मृषा दिया गया है, उसका अभिप्राय माया-युक्त असत्य भाषण से है। किन्तु स्थानाङ्ग की टीका में इस का अर्थ वेष बदल कर दूसरों को ठगना कहा है। उद्वेग रूप मनोविकार को परति और आनन्दरूप चित्तवृत्ति को रति कहते हैं। परन्तु इनको एक कहने का कारण यह है कि जहाँ किसी वस्तु में रति होती है, वहीं अन्य वस्तु में अरति अवश्यम्भावी है। अत: दोनों को एक कहा गया है। अष्टावश पापविरमण-पद १०६–एगे पाणाइवाय-वेरमणे जाव / ११०-[एगे मुसवाय-वेरमणे / १११-एगे अदिण्णादाण-वेरमणे / ११२--एगे मेहुण-वेरमणे। ११३-~-एगे परिग्गह-वेरमणे / ११४-एगे कोह-विवेगे। ११५--[एगे माण-विवेगे जाव; ११६--एगे] माया-विवेगे। ११७-एगे लोभ-विवेगे। ११८-एगे पेज्ज-विवेगे। ११६~-एगे दोस-विवेगे। १२०-एगे कलहविवेगे। १२१–एगे अभक्खाण-विवेगे। १२२-एगे पेसुण्ण-विवेगे। १२३–एगे परपरिवायविवेगे। १२४-एगे अरतिरति-विवेगे। १२५–एगे मायामोस-विवेगे। १२६–एगे] मिच्छादसणसल्ल-विवेगे। प्राणातिपात-विरमण एक है (106) / मृषावाद-विरमण एक है (110) / अदत्तादानविरमण एक है (111) / मैथुन-विरमण एक है (112) / परिग्रह-विरमण एक है (113) / क्रोधविवेक एक है (114) / मान-विवेक एक है (115) / माया-विवेक एक है (116) / लोभ-विवेक एक है (117) / प्रेयस्-(राग-) विवेक एक है (118) / द्वष-विवेक एक है (116) / कलह-विवेक एक है (120) / अभ्याख्यान-विवेक एक है (121) / पैशुन्य-विवेक एक है (122) / पर-परिवादविवेक एक है (123) / अरति-रति-विवेक एक है (124) / माया-मृषा-विवेक एक है (125) / और मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक एक है (126) / विवेचन--जिस प्रकार प्राणातिपात आदि अठारह पाप स्थानों के तर-तम भाव की अपेक्षा अनेक भेद होते हैं, किन्तु पापरूप कार्य की समानता से उन्हें एक कहा गया है, उसी प्रकार उन पापस्थानों के विरमण (त्याग) रूप स्थान भी तर-तम भाव की अपेक्षा अनेक होते हैं, किन्तु उनके त्याग की समानता से उन्हें एक कहा गया है / अवसपिणी-उत्सपिणी-पद १२७---एगा प्रोसप्पिणी। १२८–एगा सुसम-सुसमा जाव। १२६-[एगा सुसमा / १३०–एगा सुसम-दूसमा। १३१--एगा दूसम-सुसमा / १३२---एगा दूसमा] / १३३-एगा दूसम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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