________________ [ स्थानाङ्गसूत्रम् विशिष्ट चित्तवृत्ति किया है। इन सभी अर्थों में प्रथम अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है, क्योंकि सभी मृत शरीर एक रूप से समान हैं। २५–एगा गती / २६---एगा आगती / २७–एगे चयणे / २८–एगे उववाए। गति एक है (25) / आगति एक है (26) च्यवन एक है (27) / उपपात एक है (28) विवेचन-जीव के वर्तमान भव को छोड़ कर आगामी भव में जाने को गति कहते हैं। पूर्व भव को छोड़कर वर्तमान भव में आने को आगति कहते हैं। ऊपर से च्युत होकर नीचे आने को च्यवन कहते हैं। वैमानिक और ज्योतिष्क देव मरण कर यतः ऊपर से नीचे आकर उत्पन्न होते हैं अतः उनका मरण 'च्यवन' कहलाता है / देवों और नारकों का जन्म उपपात कहलाता है / ये गतिआगति और च्यवन-उपपात अर्थ की दृष्टि से सभी जीवों के समान होते हैं, अतः उन्हें एक कहा गया है। २६–एगा तक्का / ३०-एगा सण्णा / ३१–एगा मण्णा / ३२-एगा विण्णू / तर्क एक है (26) / संज्ञा एक है (30) / मनन एक है (31) / विज्ञता या विज्ञान एक है (32) / विवेचन-इन चारों सत्रों में मति ज्ञान के चार भेदों का निरूपण किया गया है। दार्शनिक दृष्टिकोण से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के और आगमिक दृष्टि से आभिनिबोधिक या मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद किये गये हैं। वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करना अवग्रह कहलाता है। अवग्रह से गृहीत वस्तु के विशेष धर्म को जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं / ईहित वस्तु के निर्णय को अवाय कहते हैं और कालान्तर में उसे नहीं भूलने को धारणा कहते हैं / ईहा से उत्तरवर्ती और अवाय से पूर्ववर्ती ऊहापोह या विचार-विमर्श को तर्क कहते हैं / न्यायशास्त्र में व्याप्ति या अविनाभाव-सम्बन्ध के ज्ञान को तर्क कहा गया है। संज्ञा के दो अर्थ होते हैं--प्रत्यभिज्ञान और अनुभति / नन्दीसत्र में मतिज्ञान का एक नाम संज्ञा भी दिया गया है। उमास्वातिने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को पर्यायवाचक या एकार्थक कहा है। मलयगिरि तथा अभयदेव सूरि ने संज्ञा का अर्थ व्यञ्जनावग्रह के पश्चात् उत्तरकाल में होने वाला मति विशेष किया है। तथा अभयदेवसूरि ने संज्ञा का दूसरा अर्थ अनुभूति भी किया है किन्तु प्रकृत में संज्ञा का अर्थ प्रत्यभिज्ञान उपयुक्त है। स्मृति के पश्चात् 'यह वही है इस प्रकार से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। वस्तगत धर्मों के पर्यालोचन को मनन कहते हैं। मलयगिरिने धारणा के तीव्रतर ज्ञान को विज्ञान कहा है और अभयदेव सूरि ने हेयोपादेय के निश्चय को विज्ञान कहा है। प्राकृत 'विन्न' का संस्कृतरूपान्तर विज्ञता या विद्वत्ता भी किया गया है। उक्त मनन आदि सभी ज्ञान जानने की अपेक्षा सामान्य रूप से एक ही हैं। ३३.--एगा वेयणा। वेदना एक है (33) / विवेचन—'वेदना' का उल्लेख इसी एकस्थान के पन्द्रहवें सूत्र में किया गया है और यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org