________________ पष्ठ स्थान ] [551 ६६-छविहे अभंतरिए तवे पण्णते, त जहा—पायच्छित्तं, विणो, वेयावच्चं, सज्झायो, झाणं, विउस्सग्गो। आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है / जैसे 1. प्रायश्चित्त, 2. विनय, 3. वैयावृत्त्य, 4. स्वाध्याय, 5. ध्यान, 6. व्युत्सर्ग (66) / विवाद-सूत्र ६७-छविहे विवादे पण्णत्ते, त जहा---ग्रोसक्कइत्ता, उस्सक्कइत्ता, अणुलोमइत्ता, पडिलोमइत्ता, भइत्ता, भेलइत्ता। विवाद-शास्त्रार्थ छह प्रकार का कहा गया है। जैसे१. प्रोसक्क इत्ता-वादी के तर्क का उत्तर ध्यान में न पाने पर समय बिताने के लिए प्रकृत विषय से हट जाना। 2. उस्सक्कइत्ता-शास्त्रार्थ की पूर्ण तैयारी होते ही वादी को पराजित करने के लिए आगे आना। 3. अनुलोमइत्ता--विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बना लेना, अथवा प्रतिवादी के पक्ष का एक वार समर्थन कर उसे अपने अनुकूल कर लेना / 4. पडिलोमइत्ता-शास्त्रार्थ की पूर्ण तैयारी होने पर विवादाध्यक्ष तथा प्रतिपक्षी की उपेक्षा कर देना। 5. भइत्ता--विवादाध्यक्ष की सेवा कर उसे अपने पक्ष में कर लेना। 6. भेल इत्ता निर्णायकों में अपने समर्थकों का बहुमत कर लेना (67) / विवेचन--वाद-विवाद या शास्त्रार्थ के मूल में चार अंग होते हैं—बादी—पूर्वपक्ष स्थापन करने वाला, प्रतिवादी--वादी के पक्षका निराकारण कर अपना पक्ष सिद्ध करने वाला, अध्यक्ष–वादीप्रतिवादी के द्वारा मनोनीत और वाद-विवाद के समय कलह न होने देकर शान्ति कायम रखने वाला, और सभ्य-निर्णायक / किन्तु यहाँ पर बास्तविक या यथार्थ शास्त्रार्थ से हट करके प्रतिवादी को हराने की भावना से उसके छह भेद किये गये हैं, यह उक्त छहों भेदों के स्वरूप से ही सिद्ध है कि जिस किसी भी प्रकार से वादी को हराना ही अभीष्ट है। जिस विवाद में वादी को हराने की ही भावना रहती है वह शास्त्रार्थ तत्त्व-निर्णायक न हो कर विजिगीषु वाद कहलाता है। क्षुद्रप्राण-सूत्र ६५-छन्विहा खुड्डा पाणा पण्णत्ता, त जहा–बेदिया, तेइंदिया, चरिबिया, संमच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया, तेउकाइया, वाउकाइया। . क्षुद्र-प्राणी छह प्रकार के कहे गये है / जैसे---- 1. द्वीन्द्रिय, 2. त्रीन्द्रिय, 3. चतुरिन्द्रिय, 4. सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक, 5. तेजस्कायिक, 6. वायुकायिक (68) / गोचरचर्या-सूत्र ६९-छविहा गोयरचरिया पण्णत्ता, त जहा-पेडा, अद्धपेडा, गोमुत्तिया, पतंगवीहिया, संबुक्कावट्टा, गंतु पच्चागता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org