________________ पंचम स्थान तृतीय उद्देश ] [ 511 बादर-तेजस्कायिक जीव पाँच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. अंगार-धधकता हुआ अग्निपिण्ड / 2. ज्वाला-जलती हुई अग्नि की मूल से छिन्न शिखा / 3. मुर्मुर-भस्म-मिश्रित अग्निकण / 4. अचि-जलते काष्ठ आदि से अच्छिन्न ज्वाला। 5. अलात-जलता हुआ काष्ठ / (181) १८२-पंचविधा बादरवाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-पाईणवाते, पडीणवाते, दाहिणवाते, उदोणवाते, विदिसवाते। बादर-वायुकायिक जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. प्राचीनवात-पूर्व दिशा का पवन / 2. प्रतीचीन वात-पश्चिम दिशा का पवन / दक्षिणवात-दक्षिण दिशा का पवन / उत्तरवात-उत्तरदिशा का पवन / 5. विदिग्वात-विदिशाओं के-ईशान, नैऋत, आग्नेय, वायव्य, अर्ध्व और अधोदिशाओं के वायु / (182) अचित्त-वायुकाय-सूत्र १८३--पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-प्रक्कते, धंते, पीलिए, सरीराणुगते, संमुच्छिमे। अचित्त वायुकाय पाँच प्रकार का कहा गया है। जैसे-- 1. आक्रान्तवात-जोर-जोर से भूमि पर पैर पटकने से उत्पन्न वायु / 2. ध्मात वात-धौंकनी आदि के द्वारा धौंकने से उत्पन्न वायु / 3. पीड़ित वात-गीले वस्त्रादि के निचोड़ने आदि से उत्पन्न वायु / 4. शरीरानुगत वात-शरीर से उच्छ्वास, अपान और उद्गारादि से निकलने वाली वायु / 5. सम्मूच्छिमवात पंखे के चलने-चलाने से उत्पन्न वायु। विवेचन–सूत्रोक्त पांचों प्रकार की वायु उत्पत्तिकाल में अचेतन होती है, किन्तु पीछे सचेतन भी हो सकती है।' निर्ग्रन्थ-सूत्र १८४---पंच णियंठा पण्णत्ता, तं जहा-पुलाए, बउसे, कुसीले, णियंठे, सिणाते / निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. पुलाक--निःसार धान्य कणों के समान निःसार चारित्र के धारक (मूल गुणों में भी दोष लगाने वाले) निर्ग्रन्थ / 2. बकुरा-उत्तर गुणों में दोष लगाने वाले निर्गन्थ / 1. एते च पूर्वमचेतनास्तत: सचेतना अपि भवन्तीति / (स्थानाङ्गसूत्रटीका, पत्र 319 A) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org