________________ स्थान रखता है / यो सामान्य गणना के अनुसार इस में बारह सौ विषय हैं। भेद-प्रभेद की दृष्टि से विषयों की संख्या और भी अधिक है। यदि इस पागम का गहराई से परिशीलन किया जाए तो विविध विषयों क सकता है / भारतीय-ज्ञानगरिमा और सौष्ठव का इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है। इस में ऐसे अनेक सार्वभौम सिद्धान्तों का संकलन-पाकलन हुआ है, जो जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्परानों के ही मूलभूत सिद्धान्त नहीं हैं अपितु आधुनिक विज्ञान-जगत में वे मूलसिद्धान्त के रूप में वैज्ञानिकों के द्वारा स्वीकृत हैं। हर ज्ञानपिपासु और अभिसन्धित्सु को प्रस्तुत आगम अन्तस्तोष प्रदान करता है। व्याख्या साहित्य स्थानांग सूत्र में विषय की बहलता होने पर भी चिन्तन की इतनी जटिलता नहीं है, जिसे उद्घाटित करने के लिये उस पर व्याख्यासाहित्य का निर्माण अत्यावश्यक होता / यही कारण है कि प्रस्तुत प्रागम पर न किसी नियुक्ति का निर्माण हुआ और न भाष्य ही लिखे गये, न चणि ही लिखी गई। सर्वप्रथम इस पर संस्कृत भाषा में नवाङ्गीटीकाकार अभयदेव सूरि ने वृत्ति का निर्माण किया। प्राचार्य अभयदेव प्रकृष्ट प्रतिभा के धनी थे / उन्होंने वि. सं. म्यारह सौ बीस में स्थानांग सूत्र पर वृत्ति लिखी / प्रस्तुत वृत्ति मूल सूत्रों पर है जो केवल शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसमें सूत्र से सम्बन्धित विषयों पर गहराई से विचार हा है। विवेचन में दार्शनिक दृष्टि यत्र-तत्र स्पष्ट हुई है / 'तथा हि' 'यदुक्तं' 'उक्तं च' 'आह च तदुक्तं 'यदाह' प्रति शब्दों के साथ अनेक अवतरण दिये हैं। आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाएँ उद्धत की हैं / अनुमान से प्रात्मा की सिद्धि करते हुये लिखा है-इस शरीर का भोक्ता कोई न कोई अवश्य होना चाहिये, क्योंकि यह शरीर भोग्य है। जो भोग्य होता है उस का अवश्य ही कोई भोक्ता होता है / प्रस्तुत शरीर का कर्ता "मात्मा" है। यदि कोई यह तर्क करे कि कर्ता होने से रसोइया के समान प्रात्मा की भी मूर्तता सिद्ध होती है तो ऐसी स्थिति में प्रस्तुत हेतू साध्यविरुद्ध हो जाता है किन्तु यह तर्क बाधक नहीं है, क्य आत्मा कथंचित् मूर्त भी है / अनेक स्थलों पर ऐसी दार्शनिक चर्चाएं हुई हैं। वृत्ति में यत्र-तत्र निक्षेपपद्धति का उपयोग किया है। जो नियुक्तियों और भाष्यों का सहज स्मरण कराती है। वृत्ति में मुख्य रूप से संक्षेप में विषय को स्पष्ट करने के लिये दृष्टान्त भी दिये गये हैं। वत्तिकार अभयदेव ने उपसंहार में अपना परिचय देते हुये यह स्वीकार किया है कि यह वृत्ति मैंने यशोदेवगणी की सहायता से सम्पन्न की। बत्ति लिखते समय अनेक कठिनाइयाँ आई। प्रस्तुत वत्ति को द्रोणाचार्य ने आदि से अन्त तक पढ़कर संशोधन किया। उसके लिये भी बृत्तिकार ने उनका हृदय से आभार व्यक्त किया। बत्ति का ग्रन्थमान चौदह हजार दौ सौ पचास श्लोक है। प्रस्तुत वृत्ति सन् 1880 में राय धनपतसिह द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित हुई / सन् 1918 और 1920 में प्रागमोदय समिति बम्बई से, सन् 1937 में माणकलाल चुन्नीलाल अहमदाबाद से और गुजराती अनुवाद के साथ मुन्द्रा (कच्छ) से प्रकाशित हुई। केवल गुजराती अनुवाद के साथ सन् 1931 में जीवराज धेलाभाई डोसी अहमदाबाद से, सन् 1955 में पं.दलसुख भाई मालवणिया ने गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद से स्थानांग समवायांग के साथ में रूपान्तर प्रकाशित किया है। जहाँ-तहाँ तुलनात्मक टिप्पण देने से यह ग्रन्थ अतीव महत्वपूर्ण बन गया है। संस्कृतभाषा में संवत् 1657 में नगषिगणी तथा पार्श्वचन्द्र व मुमति कल्लोल और संवत् 1705 में हर्षनन्दन ने भी स्थानांग पर वत्ति लिखी है। तथा पूज्य घासीलाल जी म. ने अपने ढंग से उस पर वत्ति लिखी है। वीर संवत् 2446 में हैदराबाद से सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद के साथ प्राचार्य अमोलकऋषि जी. म. ने सरल संस्करण प्रकाशित करवाया / सन् 1972 में मुनि श्री कन्हैयालाल जी "कमल' ने आगम अनुयोग प्रकाशन, माण्डेराव से स्थानांग का एक शानदार संस्करण प्रकाशित करवाया है, जिसमें अनेक परिशिष्ट भी हैं। प्राचार्यसम्राट अात्मारामजी म. ने हिन्दी में विस्तत व्याख्या लिखी। वह प्रात्माराम-प्रकाशन समिति लुधियाना से [ 52 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org