________________ 428 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 4. विषकुम्भ-विषपिधान---कोई कुम्भ विष से भरा होता है और उसका ढक्कन भी विष ___ का ही होता है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. मधुकुम्भ, मधुपिधान-कोई पुरुष हृदय से मधु जैसा मिष्ट होता है और उसकी जिह्वा भी मिष्टभाषिणी होती है / 2. मधुकुम्भ, विषपिधान-कोई पुरुष हृदय से तो मधु जैसा मिष्ट होता है, किन्तु उसकी जिह्वा विष जैसी कटु-भाषिणी होती है / 3. विषकुम्भ-मधु-पिधान-किसी पुरुष के हृदय में तो विष भरा होता है, किन्तु उसकी जिह्वा मिष्टभाषिणी होती है। 4. विष कुम्भ, विषपिधान-किसी पुरुष के हृदय में विष भरा होता है और उसकी जिह्वा भी विष जैसी कटु-भाषिणी होती है। 1. जिस पुरुष का हृदय पाप से रहित होता है और कलुषता से रहित होता है, तथा जिस की जिह्वा भी सदा मधुरभाषिणी होती है, वह पुरुष मधु से भरे और मधु के ढक्कन वाले कुम्भ के समान कहा गया है। 2. जिस पुरुष का हृदय पाप-रहित और कलुषता-रहित होता है, किन्तु जिस की जिह्वा सदा कटु-भाषिणी होती है, वह पुरुष मधुभृत, किन्तु विषपिधान वाले कुम्भ के समान कहा गया है। 3. जिस पुरुष का हृदय कलुषता से भरा है, किन्तु जिसकी जिह्वा सदा मधुरभाषिणी है, वह पुरुष विष-भृत और मधु-पिधान वाले कुम्भ के समान है। 4. जिस पुरुष का हृदय कलुषता से भरा है और जिसकी जिह्वा भी सदा कटुभाषिणी है, वह पुरुष विष-भृत और विष-पिधान वाले कुम्भ के समान है (566) / / उपसर्ग-सूत्र ___ ५६७--चउब्धिहा उसग्गा पण्णत्ता, तं जहा-दिवा, माणुसा, तिरिक्खजोणिया, प्रायसंचेयणिज्जा। उपसर्ग चार प्रकार का होता है / जैसे१. दिव्य-उपसर्ग-देव के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग / 2. मानुष-उपसर्ग-मनुष्यों के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग / 3. तिर्यग्योनिक उपसर्ग---तियंच योनि के जोवों के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग / 4. अात्मसंचेतनीय उपसर्ग-स्वयं अपने द्वारा किया गया उपसर्ग (567) / विवेचन–संयम से गिराने वाली और चित्त को चलायमान करने वाली बाधा को उपसर्ग कहते हैं / ऐसी बाधाएं देव, मनुष्य और तिर्यचकृत तो होती ही हैं, कभी-कभी आकस्मिक भी होती हैं, उनको यहां आत्म-संचेतनीय कहा गया है / दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार में इसके स्थान पर 'अचेतनकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org