SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ स्थान–चतुर्थ उद्देश ] [ 423 तैराक (तैरने वाले पुरुष) चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. कोई तैराक समुद्र को तैरने का संकल्प करता है और समुद्र को तैर भी जाता है। 2. कोई तैराक समुद्र को तैरने का संकल्प करता है, किन्तु गोष्पद (गौ के पैर रखने से बने गड़हे जैसे अल्पजलवाले स्थान) को तैरता है। 3. कोई तैराक गोष्पद को तैरने का संकल्प करता है और समुद्र को तैर जाता है। 4. कोई तैराक गोष्पद को तैरने का संकल्प करता है और गोष्पद को ही तैरता है। विवेचन-यद्यपि इसका दार्टान्तिक-प्रतिपादक सूत्र उपलब्ध नहीं है, किन्तु परम्परा के अनुसार टीकाकार ने इस प्रकार से भाव-तैराक का निरूपण किया है- . 1. कोई पुरुष भव-समुद्र पार करने के लिए सर्वविरति को धारण करने का संकल्प करता _है और उसे धारण करके भव-समुद्र को पार भी कर लेता है। 2. कोई पुरुष सर्वविरति को धारण करने का संकल्प करके देशविरति को ही धारण करता है। 3. कोई पुरुष देशविरति को धारण करने का संकल्प करके सर्वविरति को धारण __करता है। 4. कोई पुरुष देशविरति को धारण करने का संकल्प करके देशविरति को ही धारण ___करता है (588) / ५८६-चत्तारि तर गा पण्णत्ता, त जहा-समई तरेता णाममेगे समुद्दे विसीयति, समुदं तरेत्ता णाममेगे गोप्पए विसोयति, गोप्पयं तरेत्ता णाममेगे समुद्दे विसीयति, गोप्पयं तरेत्ता णाममेगे गोपए विसीयति / पुनः तैराक चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. कोई तैराक समुद्र को पार करके पुनः समुद्र को पार करने में अर्थात् समुद्र तिरने के समान एक महान कार्य करके दूसरे महान् कार्य को करने में विषाद को प्राप्त होता है। 2. कोई तैराक समुद्र को पार करके (महान् कार्य करके) गोष्पद को पार करने में (सामान्य कार्य करने में) विषाद को प्राप्त होता है। 3. कोई तैराक गोष्पद को पार करके समुद्र को पार करने में विषाद को प्राप्त होता है / 4. कोई तैराक गोष्पद को पार करके पुनः गोष्पद को पार करने में विवाद को प्राप्त होता है (586) / पूर्ण-तुच्छ-सूत्र ५६०–चत्तारि कुभा पण्णत्ता, त जहा-पुण्णे णाममेग पुण्णे, पुण्णे णाममेग तुच्छे, तुच्छे णाममेग पुण्णे, तुच्छे णामभेगे तुच्छे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, त जहा--पुण्णे णाममेगे पुण्णे, पुण्णे णाममेगे तुच्छे, तुच्छे णाममेगे पुण्णे, तुच्छे णाममेगे तुच्छे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy