________________ 392 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 4. सान्निपातिक-वात, पित्त और कफ के सम्मिलित विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि (515) / ५१६-चउठिवहा तिगिच्छा पण्णता, त जहा–विज्जो, ओसधाई, पाउरे, परियारए। चिकित्सा के चार अंग होते हैं। जैसे-- 1. वैद्य, 2. औषध, 3. अातुर (रोगी), 4. परिचारक (परिचर्या करने वाला) (516) / ५१७-चत्तारि तिगिच्छगा पण्णत्ता, त जहा–प्राततिगिच्छए णाममेंगे जो परतिगिच्छए, परतिगिच्छए गाममेगे जो प्राततिगिच्छए, एगे प्राततिगिच्छएवि परतिगिच्छएवि, एगे णो प्राततिगिज्छए जो परतिगिच्छए। चिकित्सक (वैद्य) चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे-- 1. अात्म-चिकित्सक, न परचिकित्सक कोई वैद्य अपना इलाज करता है, किन्तु दूसरे का इलाज नहीं करता / / 2. पर-चिकित्सक, न प्रात्म-चिकित्सक-कोई वैद्य दूसरे का इलाज करता है, किन्तु अपना इलाज नहीं करता। 3. आत्म-चिकित्सक भी, पर-चिकित्सक भी--कोई वैद्य अपना भी इलाज करता है और दूसरे का भी इलाज करता है। 4. न आत्म-चिकित्सक, न पर-चिकित्सक कोई वैद्य न अपना इलाज करता है और न दूसरे का ही इलाज करता है (517) / बणकर-सूत्र ५१८-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-वणकरे णाममेगे णो वणपरिमासी, वणपरिमासी णाममेगे जो वणकरे, एगे वणकरेवि वणपरिमासीवि, एगे गो वणकरे णो वणपरिमासी / वणकर [घाव करने वाले पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. व्रणकर, न व्रण-परामर्शी-कोई पुरुष रक्त, राध आदि निकालने के लिए व्रण (घाव) ___ करता है, किन्तु उसका परिमर्श (सफाई, धोना आदि) नहीं करता। 2. व्रण-परामर्शी, न व्रणकर-कोई पुरुष व्रण का परिमर्श करता है, किन्तु व्रण नहीं करता। 3. व्रणकर भी, व्रण-परामर्शी भी कोई पुरुष वणकर भी होता है और व्रण-परिमर्शी भी होता है। 4. न वणकर, न व्रण-परामर्शी-कोई पुरुष न वणकर ही होता है और न व्रण-परामर्शी _ही होता है' (518) / व्रण के दो भेद हैं—द्रव्य व्रण-शरीर सम्बन्धी घाव और भाव वरण-स्वीकृत व्रत में होने वाला प्रतिचार / भावपक्ष में परामर्शी का है-स्मरण करने वाला / इत्यादि व्याख्या यथायोग्य समझ लेनी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org