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________________ चतुर्थ स्थान--तृतीय उद्देश ] [363 पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. प्रात्मभर, न परंभर-कोई पुरुष अपना ही भरण-पोषण करता है, दूसरों का नहीं। 2. परंभर, न आत्मभर--कोई पुरुष दूसरों का भरण-पोषण करता है, अपना नहीं / 3. आत्मभर भी, परंभर भी-कोई पुरुष अपना भरण-पोषण करता है और दूसरों का भी। 4. न आत्मभर, न परंभर-कोई पुरुष न अपना ही भरण-पोषण करता है और न दूसरों __ का ही (454) / दुर्गत-सुगत-सूत्र ४५५-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-दुग्गए णाममेगे दुग्गए, दुग्गए णाममेगे सुग्गए, सुग्गए णाममेगे दुग्गए, सुग्गए, णाममेगे सुग्गए। पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. दुर्गत और दुर्गत—कोई पुरुष धन से भी दुर्गत (दरिद्र) होता है और ज्ञान से भी दुर्गत होता है। 2. दुर्गत और सुगत-कोई पुरुष धन से दुर्गत होता है, किन्तु ज्ञान से सुगत (सम्पन्न) होता है। 3. सुगत और दुर्गत-कोई पुरुष धन से सुगत होता है, किन्तु ज्ञान से दुर्गत होता है / 4. सुगत और सुगत-कोई पुरुष धन से भी सुगत होता है और ज्ञान से भी सुगत होता है (455) / ४५६–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तं जहा-दुग्गए णाममेगे दुव्बए, दुग्गए णाममेगे सुब्बए, सुग्गए णाममेगे दुव्वए, सुग्गए णाममेगे सुम्बए। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. दुर्गत और दुव्रत-कोई पुरुष दुर्गत और दुर्वत (खोटे व्रतवाला) होता है। 2. दुर्गत और सुव्रत-कोई पुरुष दुर्गत किन्तु सुव्रत (उत्तम व्रतवाला) होता है / 3. सुगत और दुव्रत-कोई पुरुष सुगत, किन्तु दुर्वत होता है। 4. सुगत और सुव्रत-कोई पुरुष सुगत और सुव्रत होता है। विवेचन-सूत्र-पठित 'दुवए' और 'सुब्बए' इन प्राकृत पदों का टीकाकार ने 'दुर्वत' और 'सुव्रत' संस्कृत रूप देने के अतिरिक्त 'दुर्व्यय' और 'सुव्यय' संस्कृत रूप भी दिये हैं। तदनुसार चारों भंगों का अर्थ इस प्रकार किया है 1. दुर्गत और दुर्व्यय-कोई पुरुष धन से दरिद्र होता है और प्राप्त धन का दुर्व्यय करता है, ___अर्थात् अनुचित व्यय करता है, अथवा प्राय से अधिक व्यय करता है। 2. दुर्गत और सुव्यय-कोई पुरुष दरिद्र होकर भी प्राप्त धन का सद्-व्यय करता है। 3. सुगत और दुर्व्यय-कोई पुरुष धन-सम्पन्न होकर धन का दुर्व्यय करता है / 4. सुगत और सुव्यय-कोई पुरुष धन-सम्पन्न होकर धन का सद्-व्यय करता है (456) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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