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________________ 314 ] [स्थानाङ्गसूत्र 2. घोरतप-सूर्य-प्रातापनादि के साथ उपवासादि करना / 3. रस-निर्यहणतप-घत आदि रसों का परित्याग करना। 4. जिह्वन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप-मनोज्ञ और अमनोज्ञ भक्त-पानादि में राग-द्वेष रहित होकर जिह्वन्द्रिय को वश करना (350) / संयमादि-सूत्र ३५१---चउदिवहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा–मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे / संयम चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. मनः-संयम, 2. वाक्-संयम, 3. काय-संयम 4. उपकरण-संयम (351) / ३५२-च उविधे चियाए पण्णत्ते. त जहा-मणचियाए, वइचियाए, कायचियाए, उवगरणचियाए। त्याग चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१ मन:-त्याग, 2. वाक्-त्याग, 3. काय-त्याग, 4. उपकरण-त्याग (352) / विवेचन---मन आदि के अप्रशस्त व्यापार का त्याग अथवा मन आदि द्वारा मुनियों को आहार आदि प्रदान करना त्याग कहलाता है / ३५३–चउविवहा अकिंचणता पण्णत्ता, तजहा-मणकिंचणता, वइअकिंचणता, कायकि चणता, उवगरणअकिंचणता / अकिंचनता चार प्रकार की कही गई है। जैसे१. मन-किचनता, 2. वचन-अकिंचनता, 3. काय-अकिंचनता, 4. उपकरण__ अकिंचनता (353) / विवेचन-संयम के चार प्रकारों के द्वारा समिति रूप प्रवृत्ति की, त्याग के चार प्रकारों के द्वारा गुप्तिरूप प्रवृत्ति को और चार प्रकार की अकिंचनता के द्वारा महाव्रत रूप प्रवृत्ति का संकेत किया गया प्रतीत होता है। // चतुर्थ स्थान का द्वितीय उद्देश समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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