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________________ है। वृत्तिकार ने काम-विकार के दश-दोषों का भी उल्लेख किया है। इन कारणों की तुलना सुथ त और चरक आदि रोगोत्पत्ति के कारणों से की जा सकती है। इन के अतिरिक्त उस युग की राजप-व्यवस्था के सम्बन्ध में भी इस में अच्छी जानकारी है। पुरुषादानीय पार्श्व व भगवान महावीर और श्रेणिक आदि के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण सामग्री भी मिलती है / दशवें स्थान में दशविध संख्या को आधार बनाकर विविध-विषयों का मंकलन हग्रा है। इस स्थान में भी विषयों की विविधता है। पूर्वस्थानों की अपेक्षा कुछ अधिक विषय का विस्तार हा है। लोक-स्थिति, शब्द के कार, क्रोधोत्पत्ति के कारण, समाधि के कारण, प्रव्रज्या ग्रहण करने के कारण, ग्रादि विविध-विषयों पर विविध दृष्टियों से चिन्तन है। प्रव्रज्या ग्रहण करने के अनेक कारण हो सकते हैं / यद्यपि प्रागमकार ने कोई उदाहरण नहीं दिया है, वत्तिकार ने उदाहरणों का संकेत किया है। बहत्कल्प भाष्य,१०० निशीथ भाष्य, आवश्यक मलयगिरि वत्ति 102 में विस्तार से उस विषय को स्पष्ट किया गया है। यावत्य संगठन का अटूट सुत्र है। वह शारीरिक और चैतसिक दोनों प्रकार की होती है। शारीरिक-अस्वस्थता को महज में विनष्ट किया जा सकता है। जब कि मानसिक अस्वस्थता के लिये विशेष धति और उपाय की अपेक्षा होती है। तत्त्वार्थ 103 और उम के व्याख्या-साहित्य में भी कुछ प्रकारान्तर से नामों का निर्देश हुआ है। भारतीय संस्कृति में दान की विशिष्ट परम्परा रही है। दान अनेक कारणों से दिया जाता है। किमो में भय की भावना रहती है, तो किसी में कीर्ति की लालसा होती है किसी में अनुकम्पा का सागर ठाठे मारता है। प्रस्तुत स्थान में दान के दश-भेद निरूपित हैं। भगवान् महावीर ने छद्मस्थ-अवस्था में दश स्वप्न देखे थे। 'छउमत्थकालियाए अन्तिमराइयंसि इस पाठ से यह विचार बनते हैं / छद्मस्थ काल की अन्तिम रात्रि में भगवान ने दश स्वप्न देखे / अावश्यक नियुक्ति१०४ और आवश्यकचणि 05 आदि में भी इन स्वप्नों का उल्लेख हुया है। ये स्वप्न व्याख्या-साहित्य की दृष्टि से प्रथम वर्षावास में देखे गये थे। बौद्ध साहित्य में भी तथागत बुद्ध के द्वारा देखे गये पांच स्वप्नों का वर्णन मिलता है।०६ जिस समय वे बोधिसत्व थे। बुद्धत्व की उपलब्धि नहीं हुई थी। उन्होंने पाँच स्वप्न देखे थे / वे इस प्रकार हैं (1) यह महान् पृथ्वी उन की विराट् शय्या बनी हुयी थी। हिमाच्छादित हिमालय उन का तकिया था / पूर्वी समुद्र वायें हाथ से और पश्चिमी समुद्र दायें हाथ से, दक्षिणी समुद्र दोनों पाँवों से ढंका था / (2) उनकी नाभि से तिरिया नामक तृण उत्पन्न हुये और उन्होंने आकाश को स्पर्श किया। (3) कितने ही काले सिर श्वेत रंग के जीव पाँव से ऊपर की ओर बढ़ते-बढ़ते घटनों तक ढंक कर खड़े हो गये। (4) चार वर्ण वाले चार पक्षी चारों विभिन्न दिशानों से पाये। और उनके चरणारविन्दों में गिर कर सभी श्वेत वर्ण वाले हो गये। (5) तथागत बुद्ध गूथ पर्वत पर ऊपर चढ़ते हैं / और चलते समय वे पूर्ण रूप से निलिप्त रहते हैं / 100. बृहत्कल्प भाष्य-गाथा--२८८० 101. निशीथ भाष्य गाथा 3656 102. आवश्यक मलय गिरि वृत्ति--५३३ 103. तत्त्वार्थ राजवार्तिक-द्वितीय भाग पृ. 624 104. अावश्यनियुक्ति–२७५ / 105. प्रावश्यक चर्णि-२७० / 106. अंगुत्तरनिकाय द्वितीय भाग--. 425 से 427 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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