________________ 268 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 'एक' संख्या चार प्रकार की कही गई है / जैसे१. द्रव्यक-द्रव्यत्व गुण की अपेक्षा सभी द्रव्य एक हैं। 2. मातृकैक--'उत्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ नवीन पर्याय की अपेक्षा उत्पन्न होता है, पूर्वपर्याय की अपेक्षा नष्ट होता है और द्रव्य की अपेक्षा ध्रुव रहता है, यह मातृका पद कहलाता है / यह सभी नयों का बीजभूत मातका पद एक है। 3. पर्यायक–पर्यायत्व सामान्य की अपेक्षा सर्व पर्याय एक हैं। 4. संग्रहैक–समुदाय-सामान्य की अपेक्षा बहुत से भी पदार्थों का संग्रह एक है / ३०१-चत्तारि कती पण्णत्ता, त जहा-दवियकती, माउयकती, पज्जवकती, संगहकती। संख्या-वाचक 'कति' चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. द्रव्यकति--द्रव्य विशेषों की अपेक्षा द्रव्य अनेक हैं / 2. मातृकाकति-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की अपेक्षा मातृका अनेक हैं। 3. पर्यायकति—विभिन्न पर्यायों को अपेक्षा पर्याय अनेक हैं। 4. संग्रहकति-अवान्तर जातियों की अपेक्षा संग्रह अनेक हैं (301) / ३०२–चत्तारि सव्वा पण्णत्ता, त जहा–णामसव्वए, ठवणसव्वए, पाएससव्वए, गिरवसेससव्वए। 'सर्व' चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. नामसर्व-नाम निक्षेप की अपेक्षा जिसका 'सर्व' यह नाम रखा जाय, वह नामसर्व है। 2. स्थापनासर्व-स्थापना निक्षेप की अपेक्षा जिस व्यक्ति में 'सर्व' का आरोप किया जाय, वह स्थापनासर्व है। 3. आदेशसर्व-अधिक की मुख्यता से और अल्प की गौणता से कहा जाने वाला आपेक्षिक सर्व 'आदेश सर्व' कहलाता है। जैसे—बहुभाग पुरुषों के चले जाने पर और कुछ के शेष रहने पर भी कह दिया जाता है कि 'सर्व ग्राम गया। 4. निरवशेषसर्व--सम्पूर्ण व्यक्तियों के आश्रय से कहा जाने वाला 'सर्व' निरवशेष सर्व कहलाता है / जैसे—सर्व देव अनिमिष (नेत्र-टिमिकार-रहित) होते हैं, क्योंकि एक भी देव नेत्र-टिमिकार-सहित नहीं होता (302) / फूट-सूत्र ३०३--माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स चउदिसि चत्तारि कूडा पण्णत्ता, त जहा–रयणे रतणुच्चए, सव्धरयणे, रतणसंचए। मानुषोत्तर पर्वत की चारों दिशाओं में चार कूट कहे गये हैं। जैसे१. रत्नकूट--यह दक्षिण-पूर्व आग्नेय दिशा में अवस्थित है। 2. रत्नोच्चयकूट-यह दक्षिण-पश्चिम नैऋत्य दिशा में अवस्थित है। 3. सर्वरत्नकूट-यह पूर्व-उत्तर ईशान दिशा में अवस्थित है। 4. रत्नसंचयकूट--यह पश्चिम-उत्तर वायव्य दिशा में अवस्थित है (303) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org