________________ चतुर्थ स्थान-प्रथम उद्देश] [ 255 प्रज्ञप्ति-सूत्र १८६-चत्तारि पण्णत्तीग्रो अंगबाहिरियानो पण्णत्तानो, तं जहा-चंदपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, जंबुद्दोवपण्णत्ती, दीवसागरपण्णत्ती / चार अंगबाह्य-प्रज्ञप्तियां कही गई हैं, जैसे--- 1. चन्द्रप्रज्ञप्ति, 2. सूर्यप्रज्ञप्ति, 3. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 4. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (189) / विवेचन-यद्यपि पांचवीं व्याख्याप्रज्ञप्ति कही गई है, किन्तु उसके अंगप्रविष्ट में परिगणित होने से उसे यहां नहीं कहा गया है। इनमें सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पंचम और षष्ठ अंग की उपाङ्ग रूप हैं और शेष दोनों प्रकीर्णक रूप कही गई हैं। / / चतुर्थ स्थान का प्रथम उद्देश समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org