________________ 240 ] [स्थानाङ्गसूत्र हरिकान्त के-१. प्रभ, 2. सुप्रभ, 3. प्रभकान्त, 4. सुप्रभकान्त / हरिस्सह के-१. प्रभ, 2. सुप्रभ, 3. सुप्रभकान्त, 4. प्रभकान्त / अग्निशिख के-१. तेज, 2. तेजशिख, 3. तेजस्कान्त, 4. तेजप्रभ / अग्निमाणव के--१. तेज, 2. तेजशिख, 3. तेजप्रभ, 4. तेजस्कान्त / पूर्ण के-१. रूप, 2. रूपांश, 3. रूपकान्त, 4. रूपप्रभ / विशिष्ट के–१. रूप, 2. रूपांश, 3. रूपप्रभ, 4. रूपकान्त / जलकान्त के-१. जल, 2. जलरत, 3. जलप्रभ, 4. जलकान्त / जलप्रभ के-३. जल, 2. जलरत, 3. जलकान्त, 4. जलप्रभ / अमितगति के-१. त्वरितगति. २.क्षिप्रगति. 3. सिंहगति. 4. सिंहविक्रमगति / अमितवाहन के --1. त्वरितगति, 2. क्षिप्रगति, 3. सिंहविक्रमगति, 4. सिंहगति / वेलम्ब के-१. काल, 2. महाकाल, 3. अंजन, 4. रिष्ट / प्रभंजन के-१. काल, 2. महाकाल, 3. रिष्ट 4. अंजन / घोष के-१. आवर्त 2. व्यावत 3. नन्दिकावर्त, 4. महानन्दिकावर्त / महाघोष के-१. आवर्त, 2. व्यावर्त, 3. महानन्दिकावर्त, 4. नन्दिकावर्त / इसो प्रकार शक्रेन्द्र के-१. सोम, 2. यम, 3. वरुण, 4. वैश्रवण / ईशानेन्द्र के-१.सोम, 2. यम, 3. वरुण, 4. वैश्रवण / तथा आगे एकान्तरित यावत् अच्युतेन्द्र के चार-चार लोकपाल कहे गये हैं। अर्थात्माहेन्द्र, लान्तक, सहस्रार, पारण और अच्युत के-१. सोम, 2. यम, 3. वरुण, 4. वैश्रवण ये चार-चार लोकपाल हैं (122) / विवेचन–यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि दक्षिणेन्द्र के तीसरे लोकपाल का जो नाम है, वह उत्तरेन्द्र के चौथे लोकपाल का नाम है। इसी प्रकार शकेन्द्र के जिस नाम वाले लोकपाल हैं उसी नाम वाले सनत्कुमार, ब्रह्मलोक, शुक्र और प्राणतेन्द्र के लोकपाल हैं। तथा ईशानेन्द्र के जिस नामवाले लोकपाल हैं, उसी नामवाले माहेन्द्र, लान्तक, सहस्रार और अच्युतेन्द्र के लोकपाल हैं। देव-सूत्र १२३–चउबिहा वाउकुमारा पण्णत्ता, तं जहा–काले, महाकाले, वेलंबे, पभंजणे / वायुकुमार चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-- 1. काल, 2. महाकाल, 3. वेलम्ब, 4. प्रभंजन / (ये चार पातालकलशों के स्वामी हैं (123) / ) १२४–चउब्धिहा देवा पण्णता, तं जहा—भवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, विमाणवासी। देव चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे 1. भवनवासी, 2. वानव्यन्तर, 3. ज्योतिष्क, 4. विमानवासी (124) / प्रमाण-सूत्र १२५-~-चउविहे पमाणे पण्णते, तं जहा-दवप्पमाणे, खेत्तप्पमाणे, कालप्पमाणे, भावप्यमाण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org