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________________ 230 ] [स्थानाङ्गसूत्र ८६-चउम्विधा माया पण्णत्ता, तं जहा-प्रणंताणुबंधी माया, अपच्चवखाणकसाया माया, पच्चक्खाणावरणा माया, संजलणा माया। एवं-रइयाणं जाव वेमाणियाणं / माया चार प्रकार की कही गई है। जैसे१. अनन्तानुबन्धी माया, 2. अप्रत्याख्यानकषाय माया, 3. प्रत्याख्यानावरण माया, 4. संज्वलन माया / यह चारों प्रकार की माया नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाई जाती है / ८७-चउविधे लोभे पण्णते, तं जहा-अर्णताणबंधी लोभे, अपच्चश्वाणकसाए लोभे, पच्चक्खाणावरणे लोमे, संजलणे लोभे / एवं-णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं]। . लोभ चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. अनन्तानुबन्धी लोभ, 2. अप्रत्याख्यान कषाय लोभ, 3. प्रत्याख्यानावरण लोभ, 4. संज्वलन लोभ / यह चारों प्रकार का लोभ नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है / ८८-चउम्बिहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा-पाभोगणिव्वत्तिते, अणाभोगणिव्यत्तिते, उवसंते, अणुवसंते / एवं-णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / पुनः क्रोध चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. आभोगनिर्वतित क्रोध, 2. अनाभोगनिवर्तित क्रोध, 3. उपशान्त क्रोध, 4. अनुपशान्त क्रोध / यह चारों प्रकार का क्रोध नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है / विवेचन-बुद्धिपूर्वक किये गये क्रोध को आभोग-निर्वतित और अबुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोध को अनाभोग-निर्वतित कहा जाता है। यह साधारण व्याख्या है। संस्कृत टीकाकार अभयदेव सूरि ने आभोग का अर्थ ज्ञान किया है। जो व्यक्ति क्रोध के दुष्फल को जानते हुए भी क्रोध करता है, उसके क्रोध को आभोगनिर्वतित कहा है। मलयगिरि सूरि ने प्रज्ञापनासूत्र की टीका में इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। वे लिखते हैं कि जब मनुष्य दूसरे के द्वारा किये गये अपराध को भली भांति से जान लेता है और विचारता है कि अपराधी व्यक्ति सीधी तरह से नहीं मानेगा, इसे अच्छी सीख देना चाहिए। ऐसा विचार कर रोष-युक्त भद्रा से उस पर क्रोध करता है, तब उसे आभोगनिर्वर्तित क्रोध कहते हैं। क्रोध के गुण-दोष का विचार किये विना सहसा उत्पन्न हए क्रोध को अनाभोगनिवर्तित कहते हैं / उदय को नहीं प्राप्त, किन्तु सत्ता में अवस्थित क्रोध को उपशान्त क्रोध कहते हैं / उदय को प्राप्त क्रोध अनुपशान्त क्रोध कहलाता है। इसी प्रकार आगे कहे जाने वाले चारों प्रकार के मान, माया और लोभ का अर्थ जानना चाहिए। ८६-[चउविहे माणे पण्णत्ते, तं जहा-आभोगणिव्वत्तिते, अणाभोगणिव्वत्तिते, उवसंते, अणुवसंते / एवं-रइयाणं जाव वेमाणियाणं / For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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