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________________ 188] [ स्थानाङ्गसूत्र 3. कब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर, भक्त-पान का परित्याग कर पादोपगमन संथारा स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूंगा? इस प्रकार उत्तम मन, वचन, काय से उक्त भावना करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा तथा महापर्यवसान वाला होता है / / ४६७–तिहि ठाणेहि समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, त जहा-- 1. कया णं अहं अप्पं या बहुयं वा परिग्गहं परिचइस्सामि ? 2. कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारितं पव्वइस्सामि ? 3. कया णं प्रहं अपच्छिममारणंतियसलेहणा-झूसणा-भूसिते भत्तपाणपडियाइक्खिते पानोवगते कालं प्रणवकंखमाणे विहरिस्सामि ? एवं समणसा सक्यसा सकायसा पागडेमाणे समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति / तीन कारणों से श्रमणोपासक ( गृहस्थ श्रावक ) महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है 1. कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह का परित्याग करूंगा ? 2. कब मैं मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित होऊंगा? 3. कब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर भक्त-पान का परित्याग कर, प्रायोपगमन संथारा स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूंगा? इस प्रकार उत्तम मन, वचन, काय से उक्त भावना करता हुया श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है (467) / विवेचन-सात तत्त्वों में निर्जरा एक प्रधान तत्त्व है। बंधे हुए कर्मों के झड़ने को निर्जरा कहते हैं। यह कर्म-निर्जरा जब विपुल प्रमाण में असंख्यात गुणित क्रम .से होती है, तब वह महानिर्जरा कही जाती है। महापर्यवसान के दो अर्थ होते हैं-समाधिमरण और अपुनर्मरण / जिस व्यक्ति के कर्मों की महानिर्जरा होती है, वह समाधिमरण को प्राप्त हो या तो कर्म-मुक्त होकर अपर्नमरण को प्राप्त होता है, अर्थात जन्म-मरण के चक्र से छट कर सिद्ध हो ज है। अथवा उत्तम जाति के देवों में उत्पन्न होकर फिर क्रम से मोक्ष प्राप्त करता है। उक्त दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में जो तीन कारण महानिर्जरा और महापर्यवसान के बताये गये हैं वे श्रमण (साधु) की अपेक्षा से और दूसरे सूत्र में श्रमणोपासक (श्रावक) की अपेक्षा से कहे गये हैं / उन तीन कारणों में मारणान्तिक सलेखना कारण दोनों के समान हैं। श्रमणोपासक का दूसरा कारण घर त्याग कर साधू बनने को भावना रूप है। तथा श्रमण का दूसरा कारण एकल विहार (प्रतिमा धारण) की भावना वाला है। एकल विहार प्रतिमा का अर्थ है-अकेला रहकर आत्म-साधना करना / भगवान् ने तीन स्थितियों में अकेले विचरने की अनुज्ञा दी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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