________________ ततीय स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 125 इन तीनों को नोसंज्ञोपयुक्त कहा गया है 1. बकुश-शरीर और उपकरण की विभूषा द्वारा अपते चारित्ररूपी वस्त्र में धब्बे लगाने वाले साधु को बकुश कहते हैं। 2. प्रतिसेवनाकुशील-किसी मूल गुण की विराधना करने वाले साधु को प्रतिसेवनाकुशील कहते हैं / 3. कषायकुशील-क्रोधादि कषायों के प्रावेश में प्राकर अपने शील को कुत्सित करने वाले साधु को कषायकुशील कहते हैं / इन तीनों प्रकार के साधुओं को संज्ञोपयुक्त और नो-संज्ञोपयुक्त कहा गया है। साधारण रूप से तो ये आहारादि की अभिलाषा से रहित होते हैं, किन्तु किसी निमित्त विशेष के मिलने पर पाहार, भय आदि संज्ञानों से उपयुक्त भी हो जाते हैं / शैक्षभूमिसूत्र १८६-तो सेहभूमीओ यण्णत्तानो, तं जहा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। उक्कोसा छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहण्णा सत्तराईदिया। तीन शैक्षभूमियां कही गई हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य / उत्कृष्ट छह मास की, मध्यम चार मास की और जघन्य सात दिन-रात की (186) / विवेचन-सामायिक चारित्र के ग्रहण करने वाले नवदीक्षित साधुको शैक्ष कहते हैं और उसके अभ्यास-काल को शैक्षभूमि कहते हैं / दीक्षा-ग्रहण करने के समय सर्व सावद्य प्रवृत्ति का त्याग रूप सामयिक चारित्र अंगीकार किया जाता है। उसमें निपुणता प्राप्त कर लेने पर छेदोपस्थापनीय चारित्र को स्वीकार किया जाता है, उसमें पांच महाव्रतों और छठे रात्रि-भोजन विरमण व्रत को धारण किया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सामायिकचारित्र की तीन भमियां बतलाई गई हैं। छह मास की उत्कृष्ट शैक्षभमि के पश्चात निश्चित रूप से छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार करना प्रावश्यक होता है। यह मन्दबुद्धि शिष्य की भूमिका है। उसे दीक्षित होने के छह मास के भीतर सर्व सावद्य-योग के प्रत्याख्यान का, इन्द्रियों के विषयों पर विजय पाने का एवं साध-समाचारी का भली-भाँति से अभ्यास कर लेना चाहिए। जो इससे अधिक बुद्धिमान शिष्य होता है, वह उक्त कर्तव्यों का चार मास में अभ्यास कर लेता है और उसके पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र को अंगीकार करता है / यह शैक्ष की मध्यम भूमिका है। जो नव दीक्षित प्रबल बुद्धि एवं प्रतिभावान होता है और जिसकी पूर्वभूमिका तैयार होती है वह उक्त कार्यों को साठ दिन में ही सीखकर छेदोपस्थापनीय चारित्र को धारण कर लेता है, यह शैक्ष की जघन्य भूमिका है। व्यवहारभाष्य के अनुसार यदि कोई मुनि दीक्षा से भ्रष्ट होकर पुनः दीक्षा ले तो वह विस्मृत सामाचारी प्रादि को सात दिन में ही अभ्यास कर लेता है. अतः उसे सातवें दिन ही। स्थापित कर दिया जाता है। इस अपेक्षा से भी शैक्षभूमि के जघन्य काल का विधान संभव है। 1. व्यवहारभाष्य उ० 2, गा० 53.54 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org