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________________ 88 ] [ स्थानाङ्गसूत्र दुविहे परपरिवाए, दुविहा परतिरती, दुविहे मायामोसे, दुविहे मिच्छादसणसल्ले पण्णत्ते, तं जहाप्रायपइट्टिए चेव, परपइट्टिए चेव / एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / क्रोध दो प्रकार का कहा गया है-आत्म-प्रतिष्ठित और पर-प्रतिष्ठित (406) / इसी प्रकार मान दो प्रकार का, माया दो प्रकार की, लोभ दो प्रकार का, प्रेयस् (राग) दो प्रकार का, द्वेष दो प्रकार का, कलह दो प्रकार का, अभ्याख्यान दो प्रकार का, पैशुन्य दो प्रकार का, परपरिवाद दो प्रकार का, अरति-रति दो प्रकार की, माया-मृषा दो प्रकार की, और मिथ्यादर्शन शल्य दो प्रकार का कहा गया है- प्रात्म-प्रतिष्ठित और पर-प्रतिष्ठित / इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में जीवों के क्रोध आदि दो-दो प्रकार के होते हैं (407) / विवेचन-बिना किसी दूसरे के निमित्त से स्वयं ही अपने भीतर प्रकट होने वाले क्रोध आदि को आत्म-प्रतिष्ठित कहते हैं। तथा जो क्रोधादि पर के निमित्त से उत्पन्न होता है उसे परप्रतिष्ठित कहते हैं / संस्कृत टीकाकार ने अथवा कह कर यह भी अर्थ किया है कि जो अपने द्वारा अाक्रोश आदि करके दूसरे में क्रोधादि उत्पन्न किया जाता है, वह आत्म-प्रतिष्ठित है / तथा दूसरे व्यक्ति के द्वारा आक्रोशादि से जो क्रोधादि उत्पन्न किया जाता है वह पर-प्रतिष्ठित कहलाता है / यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि पृथ्वीकायिकादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के दण्डकों में आत्म-प्रतिष्ठित क्रोधादि पूर्वभव के संस्कार द्वारा जनित होते हैं। जीव-पद ४०८--दुविहा संसारसमावण्णा जीवा पण्णता, तं जहा तसा चेव, थावरा चेव / 406-- सधजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाचेव, प्रसिद्धा चेव / ४१०-दविहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा-सइंदिया चेव अणिदिया चेव, सकायच्चेव प्रकायच्चेव, सजोगी चेव अजोगी चेव, सवेया चेव अवेया चेब, सकसाया चेव अकसाया चेव, सलेसा चैव अलेसा चेव, णाणी चेव अणाणी चेव, सागारोव उत्ता चेव अणागारोवउत्ता चेव, पाहारगा चेव प्रणाहारगा चेव, भासगा चेव प्रभासगा चेव, चरिमा चेव प्रचरिमा चेव, ससरोरी चेव असरीरी चेव / संसार-समापन्नक (संसारी) जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-स और स्थावर (408) / सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-सिद्ध और प्रसिद्ध (४०)पन: सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-सेन्द्रिय (इन्द्रिय सहित) और अनिन्द्रिय (इन्द्रिय-रहित) / सकाय और अकाय, सयोगी और अयोगी, सवेद और अवेद, सकषाय और अकषाय, सलेश्य और अलेश्य, ज्ञानी और अज्ञानी, साकारोपयोग-युक्त और अनाकारोपयोग-युक्त, आहारक और अनाहरक, भाषक और प्रभाषक, सशरीरी और अशरीरी (410) / मरण-पद ४११-दो मरणाई समणेणं भगवता महावीरेण समणाणं णिग्गंथाणं णो णिच्चं वणियाइं णो णिच्चं कित्तियाई णो णिच्चं बुइयाई णो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्चं अब्भणुण्णायाई भवंति, तं जहावलयमरणे चव, वसट्टमरणे च व। ४१२-एवं णियाणमरणे चे व तब्भवमरणे चव, गिरिपडणे चे व, तरुपडणे चव, जलपवेसे चे व जलणपवेसे चव, विसभक्खणे व सत्थोवाडणे चेव / ४१३-दो मरणाई समणणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णो णिच्चं वणियाइं णो णिच्चं कित्तियाई Jain Education International www.jainelibrary.org. For Private & Personal Use Only
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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