________________ [ स्थानाङ्गसूत्र __दो प्रकार से प्रात्मा शरीर का स्पर्श कर बाहिर निकलती है-देश से (कुछ प्रदेशों से, या शरीर के किसी भाग से) प्रात्मा शरीर का स्पर्श कर बाहिर निकलती है और सर्व प्रदेशों से आत्मा शरीर का स्पर्श कर बाहिर निकलती है (368) / दो प्रकार से आत्मा शरीर को स्फुरित (स्पन्दित) कर बाहिर निकलती है-एक देश से प्रात्मा शरीर को स्फुरित कर बाहिर निकलती है और सर्व प्रदेशों से प्रात्मा शरीर को स्फुरित कर बाहिर निकलती है (366) / दो प्रकार से आत्मा शरीर को स्फुटित कर बाहिर निकलती है-एक देश से प्रात्मा शरीर को स्फुटित कर बाहिर निकलती है और सर्व प्रदेशों से प्रात्मा शरीर को स्फुटित कर बाहर निकलती है (400) / दो प्रकार से प्रात्मा शरीर को संवर्तित (संकुचित) कर बाहिर निकलती है--- एक देश से आत्मा शरीर को संवर्तित कर बाहिर निकलती है और सर्व प्रदेशों से आत्मा शरीर को संवर्तित कर बाहिर निकलती है (401) / दो प्रकार से प्रात्मा शरीर को निर्वतित (जीव-प्रदेशों से अलग) कर बाहिर निकलती है-- एक देश से प्रात्मा शरीर को निर्वतित कर बाहिर निकलती है और सर्व प्रदेशों से आत्मा शरीर को निर्वर्तित कर बाहिर निकलती है (402) / विवेचन-इन सूत्रों में बतलाया गया है कि जब आत्मा का मरण-काल आता है, उस समय वह शरीर के किसी एक भाग से भी बाहिर निकल जाती है अथवा सर्व शरीर से भी एक साथ निकल जाती है। संसारी जीवों के प्रदेशों का बहिर्गमन किसी एक भाग से होता है और सिद्ध होने वाले जीवों के प्रदेशों का निर्गमन सर्वाङ्ग से होता है / आत्म-प्रदेशों के बाहिर निकलते समय शरीर में होने वाली कम्पन, स्फुरण और संकोचन और निर्वतन दशाओं का उक्त सूत्रों द्वारा वर्णन किया गया है। क्षय-उपशम-पद ४०३-दोहि ठाणेहि माता केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, तं जहा---खएण चेव उसमेण चेव / ४०४--दोहि ठाणेहि आता-केवलं बोधि बुज्झज्जा, केवलं मुडे भवित्ता अगाराम्रो प्रणगारियं पवइज्जा, केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलमामिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं सुयणाणं उम्पाडेजा, केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा–खएण चेव, उवसमेण चेव / __दो प्रकार से प्रात्मा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन पाती है-कर्मों के क्षय से और उपशम से (403) / दो प्रकार से प्रात्मा विशुद्ध बोधि का अनुभव करती है, मुण्डित हो घर छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता को पाती है, सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करती है, सम्पूर्ण संयम के द्वारा संयत होती है, सम्पूर्ण संवर के द्वारा संवृत होती है, विशुद्ध प्राभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करती है, विशुद्ध श्रुतज्ञान को प्राप्त करती है, विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करती है और विशुद्ध मन:पर्यव ज्ञान को प्राप्त करती है-क्षय से और उपशम से (403) / विवेचन-यद्यपि यहाँ पर धर्म-श्रवण, बोधि-प्राप्ति आदि सभी कार्य-विशेषों की प्राप्ति का कारण सामान्य से कर्मों का क्षय या उपशम कहा गया है, तथापि प्रत्येक स्थान की प्राप्ति में विभिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org