________________ 52] [ स्थानाङ्गसूत्र संवत्सर (वर्ष), पाँच संवत्सर का एक युग, बीस युग का एक शतवर्ष, दश शतवर्षों का सहस्र वर्ष और सौ सहस्र वर्षों का एक शतसहस्र या लाख वर्ष होता है। 84 लाख वर्षों का एक पूर्वांग और 84 लाख पूर्वांगों का एक पूर्व होता है। आगे की सब संख्याओं का 84-84 लाख से गुणित करते हुए शीर्षप्रहेलिका तक ले जाना चाहिए। शीर्षप्रहेलिका में 54 अंक और 140 शून्य होते हैं। यह सबसे बड़ी संख्या मानी गई है। शीर्षप्रहेलिका के अंकों की उक्त संख्या स्थानांग के अनुसार है। किन्तु वीरनिर्वाण के 840 वर्ष के बाद जो वलभी वाचना हुई, इसमें शीर्षप्रहेलिका की संख्या 250 अंक प्रमाण होने का उल्लेख ज्योतिष्करंड में मिलता है। तथा उसमें नलिनांग और नलिन संख्याओं से आगे महानलिनांग, महानलिन आदि अनेक संख्याओं का भी निर्देश किया गया है / शीर्षप्रहेलिका की अंक-राशि चाहे 164 अंक-प्रमाण हो, अथवा 250 अंक-प्रमाण हो, पर गणना के नामों में शीर्षप्रहेलिका को ही अन्तिम स्थान प्राप्त है। यद्यपि शीर्षप्रहेलिका से भी आगे संख्यात काल पाया जाता है, तो भी सामान्य ज्ञानी के व्यवहार-योग्य शीर्षप्रहेलिका ही मानी गई है। इससे प्रागे के काल को उपमा के माध्यम से वर्णन किया गया है। पल्य नाम गडढं का है। एक योजन लम्बे चौड़े और गहरे गड्ढे को मेष के अति सूक्ष्म रोमों को कैंची से काटकर भरने के बाद एक-एक रोम को सौ-सौ वर्षों के बाद निकालने में जितना समय लगता है, उतने काल को एक पल्योपम कहते हैं। यह असंख्यात कोडाकोडी वर्षप्रमाण होता है। दश कोडाकोडी पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। दश कोडाकोड़ी सागरोपम काल की एक उत्सपिणी होती है और अवसर्पिणी भी दश कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होती है। शीर्षप्रहेलिका तक के काल का व्यवहार संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले प्रथम पृथ्वी के नारक, भवनपति और व्यन्तर देवों के, तथा भरत और ऐरवत क्षेत्र में सुषम-दुःषमा आरे के अन्तिम भाग में होने वाले मनुष्यों और तिर्यंचों के आयुष्य का प्रमाण बताने के लिए किया जाता है। इससे ऊपर असंख्यात वर्षों की आयुष्य वाले देव नारक और मनुष्य, तिथंचों के आयूष्य का प्रमाण पल्योपम से और उससे आगे के आयुष्य वाले देव-नारकों का आयुष्यप्रमाण सागरोपम से निरूपण किया जाता है। ३६०–गामाति वा णगराति का णिगमाति वा रायहाणीति वा खेडाति वा कब्बडाति वा मडंबाति वा दोणमुहाति वा पट्टणाति वा प्रागराति वा प्रासमाति वा संबाहाति वा सण्णिवेसाइ वा घोसाइ वा पारामाइ वा उज्जाणाति वा वणाति वा बणसंडाति वा वावीति वा पुक्खरणीति वा सराति वा सरपंतीति वा अगडाति वा तलागाति वा दहाति वा णदीति वा पुढवीति वा उदहीति वा वातखंधाति वा उवासंतराति वा वलयाति बा विग्गहाति वा दीवाति वा समाति वा वेलाति वा वेइयाति वा दाराति वा तोरणाति वा ओरइयाति वा गैरइयावासाति वा जाव वेमाणियाति वा वेमाणियावासाति वा कप्पाति वा कप्पविमाणावासाति वा वासाति वा वासधरपवताति वा कूडाति वा कूडागाराति वा विजयाति वा रायहाणीति वा-जीवाति या अजीवाति या पवुच्चति / ग्राम और नगर, निगम और राजधानी, खेट और कर्वट, मडंब और द्रोणमुख, पत्तन और आकर, आश्रम और संवाह, सन्निवेश और घोष, आराम और उद्यान, वन और वनषण्ड, वापी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org