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________________ द्वितीय स्थान-द्वितीय उद्देश [ [ 46 विवेचन-गति का अर्थ है—गमन और प्रागति अर्थात् आगमन / नारक जीवों में मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच इन दो का गमन होता है और वहाँ से आगमन भी उक्त दोनों जाति के जीवों में ही होता है। १७४–एवं असुरकुमारा वि, णवरं-से चव णं से असुरकुमारे असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्जा। एवं-सव्वदेवा / इसी प्रकार असुरकुमार भवनपति देव भी दो गति और दो आगति वाले कहे गये हैं। विशेष-असुर कुमार देव असुरकुमार-पर्याय को छोड़ता हुया मनुष्य पर्याय में या तिर्यग्योनि में जाता है / इसी प्रकार सर्व देवों की गति और आगति जानना चाहिए (174) / विवेचन--- यद्यपि असुरकुमारादि सभी देवों की सामान्य से दो गति और दो आगति का निर्देश इस सूत्र में किया गया है, तथापि यह विशेष ज्ञातव्य है कि देवों में मनुष्य और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच ही मर कर उत्पन्न होते हैं। किन्तु भवनत्रिक (भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क) और ईशान कल्प तक के देव मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के सिवाय एकेन्द्रिय पृथ्वी, जल और वनस्पति काय में भी उत्पन्न होते हैं। १७५-पुढविकाइया दुगतिया दुयागतिया पग्णत्ता. तं जहा-पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहितो वा णो-पुढविकाइएहितो वा उववज्जेज्जा। से चव णं से पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा णो-पुढविकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा। १७६-एवं नाव मणुस्सा। पृथ्वीकायिक जीव दो गति और दो आगति वाले कहे गये हैं। यथा--पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय में उत्पन्न होता हुआ पृथ्वीकायिकों से अथवा नो-पृथ्वीकायिकों से आकर उत्पन्न होता है / वही पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकता को छोड़ता हुमा पृथ्वीकायिक में, अथवा नो-पृथ्वीकायिकों(अन्य अप्कायिकादि) में जाता है (175) / इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक दो गति और दो आगति कही गई है। अर्थात् अप्काय से लेकर मनुष्य तक के सभी दण्डकवाले जीव अपने-अपने काय से अथवा अन्य कायों से प्राकर उस-उस काय में उत्पन्न होते हैं और वे अपनी-अपनी अवस्था छोड़कर अपने-अपने उसी काय में अथवा अन्य कायों में दण्डक-मागणा-पद 177 - दुविहा गैरइया पण्णत्ता, त जहा-भवसिद्धिया चेव, प्रभवसिद्धिया चेव जाव वेमाणिया। १७८-दुविहा गैरइया पण्णत्ता, तजहा---प्रणंतरोववण्णगा चेव, परंपरोबवण्णगा चेव जाव वेमाणिया। १७६-दुविहा रइया पण्णत्ता, त जहा—गतिसमावण्णगा चेव, प्रगतिसमावण्णगा चव जाव वेमाणिया। १८०---दुविहा रइया पण्णत्ता, त जहा-पढमसमओववण्णगा चव, अपढमसमग्रोववण्णगा चव जाव वेमाणिया। १८१–दुविहा रइया पण्णत्ता, त जहा---पाहारगा चव, प्रणाहारगा चेव / एवं जाव वेमाणिया। १८२–दुविहा रइया पण्णत्ता, त जहा–उस्सासगा चंव, णोउस्सासगा चव जाव वेमाणिया। १८३–दुविहा रइया पण्णत्ता, त जहा–सइंदिया चेव, प्रणिदिया चे व जाव वेमाणिया। १८४-दुविहा रइया पण्णत्ता. त जहा—पज्जत्तगा. चेव, अपज्जत्तगा चेव जाव वेमाणिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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