________________ द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश ] [47 और परिचित हो जाने पर शिष्य पुनः गुरु के आगे निवेदित करता है, इसमें उत्तीर्ण हो जाने पर गुरु उसे भलीभाँति से स्मरण रखने और दूसरों को पढ़ाने का निर्देश देते हैं, इसे अनुज्ञा कहा जाता है। सूत्र 161 में निर्ग्रन्थ और निग्रन्थियों को जो मारणान्तिकी सल्लेखना का विधान किया गया है, उसका अभिप्राय यह है--कषायों के कृश करने के साथ काय के कृश करने को सल्लेखना कहते हैं। मानसिक निर्मलता के लिए कषायों का कृश करना और शारीरिक वात-पित्तादि-जनित विकारों की शुद्धि के लिए भक्त-पान का त्याग किया जाता है, उसे भक्त-पान-प्रत्याख्यान समाधिमरण कहते हैं। सामर्थ्यवान् साधु उठना-बैठना और करवट बदलना आदि समस्त शारीरिक क्रियाओं को छोड़कर, संस्तर पर कटे हुए वृक्ष के समान निश्चेष्ट पड़ा रहता है, उसे पादपोपगमन संथारा कहते हैं / इसका दूसरा नाम प्रायोपगमन भी है। इस अवस्था में खान-पान का त्याग तो होता ही है, साथ ही वह मुख से भी किसी से कुछ नहीं बोलता है और न शरीर के किसी अंग से किसी को कुछ संकेत ही करता है / समाधिमरण के समय भी पूर्व या उत्तर की ओर मुख रहना आवश्यक है। द्वितीय स्थान का प्रथम उद्देश समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org