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________________ २२ अनुयोगद्वारसूत्र अवस्था में पहुंचता है। तब सूर्य पूर्ण रूप में उदित होकर अपने प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है। इस उषाकालीन स्थिति का संकेत रत्तासोगप्पगास..तेयसा जलंते पद द्वारा किया है। विशिष्ट शब्दों के अर्थ- राईसर-राजेश्वर–चक्रवर्ती, वासुदेव आदि, अथवा राजा महामांडलिक, ईश्वर—युवराज, सामान्य मांडलिक, अमात्य आदि, तलवर-राजा द्वारा प्रदत्त रत्नालंकृत स्वर्णपट्ट को मस्तक पर धारण करने वाला । माडंबिय—जिनके आसपास में अन्य गांव नहीं हो अथवा छिन्न-भिन्न जनाश्रय विशेष को मडंब और इन मडंबों के अधिपति को. माडंबिक कहते हैं। कोडुंबिय–अनेक कुटुम्बों का प्रतिपालन करने वाले। इब्भ इभ नाम हाथी का है। जिनके पास हाथी-प्रमाण द्रव्य हो । सेट्टि जो कोट्यधीश हैं तथा राजा द्वारा नगरसेठ की उपाधि से विभूषित एवं संमानार्थ स्वर्णपट्टप्राप्त। सेणावइ हाथी आदि चतुरंग सेना के नायक सेनापति। सत्थवाह—सार्थवाह—गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रय-विक्रय योग्य द्रव्यसमूह को लेकर लाभ की इच्छा से जो अन्य व्यापारियों के समूह के साथ देशान्तर जाते हैं एवं उन का संवर्धन करते हैं। कुप्रावाचनिक द्रव्यावश्यक २१. से किं तं कुप्पावयणियं दव्वावस्सयं ? कुप्पावणिय दव्वावस्सयं जे इमे चरग-चीरिग-चम्मखंडिय-भिच्छुडग-पंडुरंग-गोतमगोव्वतिय-गिहिधम्म-धम्मचिंतग-अविरुद्ध-विरुद्ध-वुड्ड-सावगप्पभितयो पासंडत्था कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते इंदस्स वा खंदस्स वा रुद्दस्स वा सिवस्स वा वेसमणस्स वा देवस्स वा नागस्स वा जक्खस्स वा भूयस्स वा मुगुदस्स वा अजाए वा कोट्टकिरियाए वा उवलेवणसम्मजणाऽऽवरिसण-धूव-पुप्फ-गंध-मल्लाइयाई दव्वावस्सयाई करेंति । से तं कुप्पावयणियं दव्वावस्सयं । [२१ प्र.] भगवन् ! कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [२१ उ.] आयुष्मन् ! जो ये चरक, चीरिक, चर्मखंडिक, भिक्षोण्डक, पांडुरंग, गौतम, गोव्रतिक, गृहीधर्मा, धर्मचिन्तक, अविरुद्ध, विरुद्ध, वृद्ध श्रावक आदि पाषंडस्थ रात्रि के व्यतीत होने के अनन्तर प्रभात काल में यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान तेज से दीप्त होने पर इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण-कुबेर अथवा देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुन्द, आर्यादेवी, कोट्टक्रियादेवी आदि की उपलेपन, संमार्जन, स्नपन (प्रक्षालन), धूप, पुष्प, गंध, माला आदि द्वारा पूजा करने रूप द्रव्यावश्यक करते हैं, वह कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक है। विवेचनसूत्र में कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। मोक्ष के कारणभूत सिद्धातों से विपरीत सिद्धान्तों की प्ररूपणा एवं आचरण करने वाले चरक आदि कुप्रावचनिकों के आवश्यक को कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक कहते हैं। ये चरक आदि इन्द्रादिकों की प्रतिमाओं का उपलेपन आदि आवश्यक कृत्य करते हैं, अतः आवश्यक पद दिया है तथा इन उपलेपनादि क्रियाओं में मोक्ष के कारणभूत भावावश्यक की अप्रधानता होने से द्रव्यत्व एवं आगम के सर्वथा अभाव की अपेक्षा नोआगमता जानना चाहिए। सूत्र में 'प्रभृति' शब्द से परिव्राजक आदि का एवं यावत् शब्द से पूर्वोक्त २० वें सूत्र में कथित प्रात:काल की
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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